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श्री गणेशाय नम्ः
श्री श्याम देवाय नम्ः
समस्त ब्रह्मांड में विद्यमान ईश्वरीय चेतना से एकाकार होने को ही भक्ति कहते हैं। परम पुरुष असीम ज्ञान की सत्ता है, इसलिए अध्यात्मिक साधकों को ज्ञान के द्वारा उन्हें प्राप्त करना चाहिए। यह ज्ञान मार्गियों का पथ है। इसमें मनुष्य अपने मन को स्थिर करके आत्म साक्षात्कार के माध्यम से मोक्ष प्राप्त कर सकता है। सनातन धर्म ग्रंथों में विभिन्न प्रकार के योग बताए गए हैं। जैसे ज्ञान योग कर्म योग तथा भक्ति योग, ये सभी मार्ग ईश्वर चेतना तक पहुंचने के साधन है। भक्ति मार्ग पर चलने के लिए आत्म ज्ञान होना जरूरी है। और इसके लिए समर्पण का भाव होना परम आवश्यक है।चाहे भक्ति कितनी भी प्रबल क्यों न हो, इसके लिए आपको वर्तमान में रहना होगा वर्तमान में रहने का अर्थ है, भूत और भविष्य का समर्पण।
जीवन चलने का नाम है शायद इसीलिए (चरैेवेति चरैवेति) चलते रहो, चलते रहो जैसी सूक्ति हमारे आध्यात्मिक जीवन को साकार रूप प्रदान करती है।जो भक्ति तत्वों के प्रचारक हैं -वे कहते हैं कि भक्ति अथवा भावना प्रमुख है, मन जब व्यवस्थित दशा और दिशा में चलता है तो उसे भक्ति कहते हैं।किंतु जब मन किसी विशेष व्यवस्था को न मान कर आक्रामक हो जाता है, तब उसे भावनात्मक आवेग कहते हैं भक्ति और भावनात्मक आवेग में यह मौलिक अंतर है अर्थात ज्ञानात्मक और बोधात्मक तत्वों की अंतिम परिणीति भक्ति ही है। भावनात्मक आवेग नहीं। इसीलिए प्राचीन काल में महान ऋषि कहते थे -भक्ति भगवान की सेवा है, वह प्रेम आनंद स्वरूप है, भक्ति भक्त का जीवन है, भक्ति पोषित करती है भक्ति हमें एक परम पुरुष बनाने में सहयोग करती है। जीवन के संघर्षों में अक्सर मनुष्य को कभी दुख तथा कभी हर्ष की अनुभूति होती है। ऐसी स्थिति में वह ऐसे सहारे की तलाश करता है, जिसके साथ वह अपनी परेशानी सांझा कर उचित सलाह प्राप्त कर सकें। प्रत्येक मनुष्य के लिए यह श्रेयकर होगा कि वह अपने जीवन में ईश्वर भक्ति को शामिल करें। इस प्रकार ईश्वरीय चेतना सदैव उसके साथ रहती है यही चेतना उसे इंद्रिय भोग के दुष्प्रभावों से बचाते हुए जीवन में सफलता की ओर अग्रसर होने का मार्ग दिखाती है।
एक बार एक संत से उसके शिष्य ने प्रश्न किया कि -गुरुजी ,भक्ति करने की उम्र क्या है? सतगुरु जी ने उसे एक कहानी के माध्यम से समझाया- एक राजा वेश बदलकर अपनी प्रजा का हाल-चाल लेता रहता था। एक बार वह जैसे ही महल से बाहर निकला कि उसे ही बाहर एक वृद्ध किसान मिल गया।जिसके बाद पूरी तरह सफेद हो गए थे। लेकिन उसका चेहरा किसी युवा की तरह तेजोमय था। राजा उसके चेहरे को देखकर बड़ा हैरान हुआ। वैसे तो यह वृद्ध लग रहा है लेकिन इसके चेहरे को देखकर कोई सिद्ध पुरुष प्रतीत होता है। राजा ने उसका हालचाल पूछा, और उसकी उम्र भी पूछी। किसान ने अपनी उम्र 4 वर्ष बताई। राजा ने वृद्ध से कहा – आपके बाल पक गए हैं। शरीर में झुर्रियां पड़ गई है। फिर भी आप अपनी उम्र 4 वर्ष बता रहे है। वृद्व ने गंभीर होकर कहा- मेरी उम्र 80 वर्ष है। लेकिन अपनी जिंदगी के 76 वर्ष धन कमाने शादी ब्याह करने और बच्चे पैदा करने में गंवा दिए। ऐसे जीवन तो कोई पशु भी जी सकता है।इसलिए इस काल को जीवन में शामिल नहीं किया जा सकता। यह बात मुझे 4 वर्ष पहले समझ में आई, और मैंने अपना जीवन ईश्वर की उपासना, जप- तप, करुणा और सेवा में लगा दिया, इसलिए मैं अपने आप को महज 4 वर्ष का ही मानता हूं।
क्योंकि जो उम्र भगवान की भक्ति में लगाई जाए वही सही मामले में सच्ची उम्र होती है। भक्ति मार्ग पर चलने वाला मनुष्य अपनी सारी व्यथा अपने आराध्य देव को सुनाकर स्वयं अपने हृदय में हितकारी सलाह का अनुभव करता है। इस प्रकार वह अपने आराध्य देव रूपी संरक्षक की देखरेख में अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है। भक्ति मार्ग पर चलने के कारण उसके जीवन में दुख-क्लेश पैदा होने की स्थिति नाममात्र की होती है। इसमें सफलता प्राप्ति की प्रचुर संभावनाएं होती है। ऐसे लोगों का जीवन हर पथ पर मार्गदर्शन करने का काम करता है। यही वजह है कि उनके जीवन को जब पढ़ो, वे सरस और सामयिक ही लगते है। भक्ति रूपी सागर में गोते लगा चुके मनुष्य का जीवन चरित्र, व्यक्ति और समाज दोनों के लिए जीवन मूल्य की दृष्टि से अनुकरणीय है। ऐसे लोगों के चरित्र को पढ़कर भक्ति मार्ग पर चलने वाले मनुष्य उसके कुछ गुणों का अनुसरण तो कर ही सकते हैं।
सर्वविदित है, सभी योग मार्गों का एकमेव लक्ष्य है परम ब्रह्म की प्राप्ति ही है। इसी कड़ी में भक्ति मार्ग पर चलने वाला भक्त भी काम, क्रोध, लोभ और मद आदि विकारों की सेना पर विजयश्री का वरण कर आखिर में समस्त ब्रह्मांड के कण-कण में व्याप्त निरंकार ब्रह्म से ही जुड़ जाता है।इसमें एक महत्वपूर्ण बिंदु यही है, कि सीधे ज्ञान मार्ग पर चलने वाले मनुष्य को उस प्रकार का सहारा नहीं मिलता, जैसा एक भक्त को अपने आराध्य देव के रूप में प्राप्त होता है। सांसारिक जीवन में तमाम ऐसे अवसर आते हैं, जब हमारी इंद्रियां हमें भटकाव की ओर प्रेरित करती हैं, ऐसी स्थिति में हमारे आराध्य में आस्था विश्वास एवं उनसे जुड़े मूल्य ही हमें सही पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं।वरना आज के इस भौतिकवादी युग में भिन्न-भिन्न विकारों रूपी दानव मनुष्य को अपना बनाने में तनिक भी देर नहीं करेगें ऐसी स्थितियों में भक्ति मार्ग ही हमारी हिचकोले खाती नैया का बेड़ा पार लगाता है।रामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था कि- आप बिना गोता लगाए मणि प्राप्त नहीं कर सकते ।भक्ति में डुबकी लगाकर और गहराई में जाकर ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
Reading this, really helped me to cope up with the problems I was facing. Thank-you!
Jai Jai shri Shyam sunder meri gindagi mera Shri Shyam Lal