285. आंतरिक संघर्ष

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

मानव की जीवन यात्रा संघर्षों से ही प्रारंभ होती है। मनुष्य के जन्म के पश्चात् संघर्ष शुरू हो जाते हैं और संघर्षों की यही यात्रा उसकी मृत्यु तक चलती रहती है।

देखा जाए तो संघर्ष जीवन का पर्याय है। यह जीवन पर्यंत चलता ही रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जब तक मनुष्य का जीवन है, तब तक संघर्ष है। जब जीवन समाप्त हो जाएगा तो संघर्ष भी समाप्त हो जाएगा।

इसलिए मनीषियों ने संघर्ष का समर्थन किया है कि संघर्ष ही जीवन है। जिस तरह मनुष्य की विकास यात्रा संघर्ष से शुरू होती है, आने वाले समय में भी मानवता का विकास हमारे संघर्षों के इतिहास से ही बनेगा। इस धरा पर मनुष्य आते हैं और चले जाते हैं। परन्तु संघर्ष सदैव बने रहते हैं।

संघर्षों के स्वरूप भी विविध प्रकार के होते हैं। कुछ संघर्ष मनुष्य के बाहरी परिवेश के मध्य होते हैं तो कुछ आंतरिक संघर्ष होते हैं।

बाहृय संघर्षों की यह विशेषता होती है कि इनमें एक पक्ष के द्वारा क्रिया होती है तो दूसरा पक्ष प्रतिक्रिया देता है यानी कि क्रिया और प्रतिक्रिया दो अलग-अलग मनुष्यों द्वारा दी जाती है। जीवन में ऐसे संघर्ष पल- पल घटित होते रहते हैं। जीवन के प्रत्येक मोड़ पर ऐसे संघर्षों के रंग देखे जा सकते हैं। संघर्ष अनुभव को धारदार बना देते हैं। संघर्षों के चलते जीवनयापन आसान हो जाता है। इस धरा पर कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जिसके जीवन में संघर्ष की कोई कहानी न हो। कठिन परिस्थितियों में जीवन जीने की कला सिखाता है, संघर्ष। संघर्ष में ही सफलता का मार्ग खुलता है। जिसके जीवन में जीतना ज्यादा संघर्ष होगा, उसको उतनी बड़ी सफलता प्राप्त होगी।

जिस तरह बाह्य संघर्ष होता है, उसी तरह कुछ संघर्ष आंतरिक होते हैं। आंतरिक संघर्ष मनुष्य के अंतर्मन की परिधि के भीतर ही जन्म लेते हैं और अंदर ही अंदर घूमते रहते हैं।
इन संघर्षों की विशेषता यह होती है कि इसमें क्रिया जिस मनुष्य के द्वारा की जाती है, प्रतिक्रिया भी उसी मनुष्य द्वारा होती है यानी कि क्रिया एवं प्रतिक्रिया दोनों के प्रभाव एक ही मनुष्य पर पड़ते हैं।
इसलिए ऐसा संघर्ष बाह्य संघर्षों की अपेक्षा अधिक व्यापक और घातक होता है। क्योंकि स्वयं का स्वयं से होने वाला संघर्ष अंतर्द्वंद कहलाता है और अंतर्द्वंद ऐसी स्थिति होती है जिसमें अंदरूनी उथल-पुथल की स्थिति इतनी तीव्र एवं चरम पर होती है कि कई बार यह मनुष्य के लिए बहुत घातक सिद्ध होती है क्योंकि इससे उसके स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। संघर्ष में मनुष्य अपनी भावना से स्वयं के साथ-साथ दूसरों को भी अवगत नहीं करा पाता। ऐसे में बेचैनी व अशांति की थाह लेना भी मुश्किल है।

अगर देखा जाए तो आंतरिक संघर्ष, बाहरी संघर्ष का ही परिणाम होते हैं। लोभ और मोह माया के वशीभूत होकर मनुष्य अपना पूरा का पूरा जीवन इसी सोच- विचार में लगा देते हैं कि हमारे पास इतनी अथाह संपत्ति हो, जिसकी बराबरी धरती का कोई भी दूसरा व्यक्ति कभी ना कर सके और हमारी अपनी संतान भी ऐसी हो जिसका कोई भी मुकाबला न कर सके और फिर अपनी इच्छापूर्ति लिए अनेक प्रकार के हथकंडे अपनाते हैं, जिसके कारण उनके मन में हमेशा अंतर्द्वंद की स्थिति बनी रहती है। रावण से लेकर कंस तक बहुत से उदाहरण है जो अपने जीवन में अपनी ऐसी ही मानसिक विकृतियों के कारण कभी भी पार न पा सके। हमें इस जगत् की सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि ऊपर से ललित और आकर्षक दिखने वाला यह जगत् अंत में हमारे लिए सुख का नहीं अपितु दुख और पीड़ा देने का ही कारण बनता है। क्योंकि बाह्य जगत से ही आंतरिक संघर्ष उत्पन्न होते हैं।

सांसारिक विकास हो या आत्मिक विकास दोनों के विकास का मार्ग भी संघर्ष है। भौतिक जीवन हो या आध्यात्मिक, संघर्ष तो प्रतिपल विद्यमान है। कोई भी जीव इससे अछूता नहीं है। यह ईश्वरीय विधान है। इन संघर्षों से बचने का केवल एक ही उपाय है कि जो कुछ भी घटित हो रहा है, उसे प्रकृति की इच्छा मान कर स्वीकार कर लिया जाए क्योंकि परिस्थिति पर हमारा वश नहीं चलता। ऐसी स्थिति में हमें केवल कर्म करने का निर्णय लेकर परिणाम को ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए तभी हम इन संघर्षों से निजात पा सकते हैं।

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