श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
वेद भारतीय संस्कृति के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। उनमें पितृयज्ञ का वर्णन मिलता है। श्राद्ध, पितृयज्ञ का ही दूसरा नाम है।
ब्रह्म पुराण में श्राद्ध के संबंध में कहा गया है कि— उचित देश, काल और पात्र में जो भी भोजनादि श्रद्धापूर्वक पितरों के निमित्त दिया जाता है, वह श्राद्ध है।
इससे यह सब पता चलता है कि सनातन धर्म में श्राद्ध की प्रथा अति प्राचीन है जो अबाध गति से अब तक चली आ रही है।
कहा जाता है कि हिंदू धर्म के श्राद्ध की प्रशंसा मुगल बादशाह शाहजहां ने भी की थी। जब उसके पुत्र औरंगजेब ने उसे कारागार में डाल दिया था। तब उसके लिए कारागार में भोजन और पानी की भी पूरी व्यवस्था नहीं थी। कहने का अभिप्राय है कि— शाहजहां को जितनी सामग्री मिलती थी, उससे उसकी भूख और प्यास भी नहीं मिटती थी। तब शाहजहां ने कारागार से अपने पुत्र के लिए एक पत्र लिखा था कि— तू अपने जीवित पिता को पानी के लिए तरसा रहा है। शत-शत बार प्रशंसनीय हैं, वे हिंदू, जो अपने मृत पितरों को जलांजलि देते हैं।
हमारी प्राचीन सभ्यताओं में भी मृतक को दफनाते समय कब्र में दैनिक भोग की आवश्यक सामग्री रखने की प्रथा थी, जो श्राद्ध का ही एक रूप थी।
प्रसिद्ध गजल गायक. जगजीत सिंह द्वारा गाई गई एक गजल है—
चिठ्ठी ना कोई संदेश, जाने वो कौन- सा देश, जहां तुम चले गए।
हमारी सांस्कृतिक मेधा का जवाब है— पितृलोक। यह वह दुनिया है, जहां हमें छोड़ कर गए हुए, हमारे सभी सगे- संबंधी निवास करते हैं। वर्ष में एक बार हम तिथियों के अनुसार उन्हें अपने यहां आमंत्रित करते हैं। उनकी पसंद का भोजन बनाते हैं ताकि उसे पाकर वे तृप्ति का अनुभव कर सकें। इस समय लोग अपने पितरों की स्मृति में पूजन व तर्पण के अतिरिक्त निर्धन व्यक्तियों को भोजन व अन्य वस्तुओं का दान भी करते हैं। हमारा यह विश्वास है कि यह निश्चित रूप से हमारे पित्तरों को प्राप्त होता है क्योंकि हमारी संस्कृति स्थूल शरीर के अतिरिक्त एक सूक्ष्म शरीर को भी स्वीकार करती है। जो मृत्यु के बाद भी नष्ट नहीं होता। मान्यता है कि पित्तर इसी सूक्ष्म शरीर से पूजन और तर्पण को ग्रहण करते हैं और फिर वे उसी पितृलोक को लौट जाते हैं। अपने संबंधों को हमेशा के लिए बरकरार रखने की यह भारतीय युक्ति अद्भुत है। वह हमें सांत्वना देती है कि— वे न होकर भी हैं और इस बात का आश्वासन भी देती है कि हम से फिर मुलाकात होगी
भारतीय संस्कृति दुनिया में सबसे विलक्षण संस्कृति है क्योंकि यह “सर्वे भवन्तु सुखिन:” का उद्घोष करती है। इसका हर विधान लोकमंगलकारी है। इसमें संशय की कोई गुंजाइश नहीं होती। मानवीय संबंधों की गहराई जितनी भारतीय संस्कृति में है, उतनी पूरे विश्व में कहीं नहीं है। हमारे रिश्ते अटूट होते हैं। उनका संबंध केवल एक जन्म में नहीं होता बल्कि जन्म- जन्मांतर का होता है। मृत्यु के पश्चातु भी हमारा रिश्ता खत्म नहीं होता। हमारी संस्कृति में जब बच्चा जन्म लेता है तो उसे पहला पाठ यही सिखाया जाता है— मातृदेवो भव और पितृदेवो भव। माता को धरती और पिता को आकाश से भी ऊंचा स्थान दिया गया है। यह उदात्त घोषणा भारतीय चेतना हजारों साल पहले कर चुकी है। ऐसे आत्मीय रिश्ते को भला मृत्यु भी कैसे तोड़ सकती है। हमारी संस्कृति में यह कहा जाता है की पित्तर, पितृलोक में निवास करते हुए सदा अपनी संतानों की मंगल कामना करते हैं। हम तो कृतज्ञता प्रकट करने के लिए नित्य सूर्य और चंद्रमा को भी अर्ध्य देते हैं जो हमें ऊष्मा, प्रकाश और शीतलता प्रदान करते हैं। फिर हम अपने उन पूर्वजों को कैसे भूल सकते हैं, जिन्होंने हमें अमूल्य जीवन दिया। उनका ऋण शायद हम कभी नहीं चुका सकते।
सनातन संस्कृति समतामूलक है। ऐसे अवसरों पर दान आदि का विधान इसलिए किया गया है, जिससे जरूरतमंदों की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। भूखों को भोजन मिल सके। पशु- पक्षियों, कीट- पतंगों को भोजन देने का उद्देश्य भी यही है कि— मनुष्य प्राणी मात्र से भी प्रेम भाव रखे। वैसे भी हमारी संस्कृति में किसी भी रूप में प्राणी जगत् की सेवा, ईश्वर की ही सेवा होती है।
गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि— उचित देश काल में उचित पात्र को दिया गया दान सफल होता है। सुपात्र को दिए गए दान से पित्तर अवश्य तृप्त होते होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। पूर्वजों की स्मृति में दिया गया दान किसी भूखे का पेट भर सकता है। किसी जरूरतमंद की जरूरत बन सकता है। हमारी नई पीढ़ी को भी श्राद्ध कर्म के विधान को समझना चाहिए, जो संपूर्ण मानवता को समर्पित है।
Jai radhe radhe shyam meri jaan mera shyam