श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
विसर्जन हमें मोह माया से मुक्ति का रास्ता दिखलाता है। हमारी आसक्ति को क्षीण करता है और हमारी लोभ प्रवृत्ति को शांत करता है। जिसके अंतर्मन में विसर्जन का भाव जागृत हो गया, समझो वह व्यक्ति संत हो गया।
आदि शंकराचार्य के बारे में कहा जाता है कि—एक बार वे स्नानादि से निवृत्त होकर मंदिर में प्रवेश कर रहे थे। उस समय वे काशी में थे। तभी उनके मार्ग में एक चांडाल आ गया। शंकराचार्य जी ने भी सुन रखा था कि— चांडाल से बच कर रहना चाहिए क्योंकि चांडाल पास आने से मनुष्य अपवित्र हो जाता है, ऐसी मान्यता थी।
इसलिए शंकराचार्य जी ने उस चांडाल से कहा— दूर रहो।
तो उस चांडाल ने पूछा— किसे दूर होना चाहिए। मुझे या मेरे शरीर को।
इस प्रश्न ने शंकराचार्य पर बड़ा प्रभाव डाला क्योंकि वे स्वयं उपदेश दे रहे थे कि— तुम शरीर नहीं हो, शरीर माया है।
चांडाल के मुख से यह प्रश्न सुनकर शंकराचार्य जी निशब्द हो गए और यह सोचने के लिए मजबूर हो गए कि जब शरीर माया है तो चांडाल के पास आने से या छूने से क्या होता है?
और इस घटना के बाद शंकराचार्य जी हिमालय की ओर चले गए। केदारनाथ में आज भी उनका एक स्मारक है। माना जाता है यह उनका अंतिम स्थान था, जहां वे देखे गए।
शंकराचार्य जी ने अपने जीवन में काफी वस्तुओं का विसर्जन किया। उनका कहना था कि— हर पल में पूर्णता का एहसास होना चाहिए तभी हम किसी चीज को प्राप्त करने के लिए लालायित नहीं होंगे और हमें पूर्णता का एहसास तभी होगा जब हम कुछ चीजों का विसर्जन करते जाएंगे। अगर हम प्रत्येक वस्तु को हर पल पकड़ कर रखेंगे तो हमें पूर्णता का एहसास कभी नहीं होगा।
अगर हम कल की किसी वस्तु के लिए लालायित हो रहे हैं तो इसका अर्थ यही है कि वर्तमान पल में से हम कुछ गंवा रहे हैं। यदि हम कल के भोजन के बारे में सोच रहे हैं तो आज के भोजन का आनंद नहीं ले पाएंगे। इसलिए हर पल विसर्जन करते रहना चाहिए और आज जो कुछ भी है उसका आनंद लेना चाहिए।
उस चांडाल ने शंकराचार्य जी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि—जीवन में विसर्जन की महत्ती आवश्यकता है। हमारे जीवन में चारों तरफ माया का आवरण ही है।
माया का अर्थ है— भ्रम। यहां हम स्थूल शरीर के साथ हैं जो भोजन, पानी और सांस लेते हैं क्योंकि उसके बगैर हम जिंदा नहीं रह सकते। जिसके कारण हमारे शरीर की कोशिकाएं हर दिन बदलती रहती हैं। यह भी सच है कि— कुछ समय बाद हमारे पास नया शरीर होगा। हमारी आत्मा पुराने शरीर का विसर्जन करके नए शरीर में प्रवेश कर जाएगी। यही माया है।
इस प्रश्न ने शंकराचार्य जी को झकझोर कर रख दिया। तभी उनमें विसर्जन की प्रवृत्ति जागी, तत्पश्चात् ही वे एक महामानव और भारत के आध्यात्मिक गुरु बन सके।
हम देव पूजन करते हैं। उदाहरण के तौर पर हम गणपति जी को अपने घर में लाते हैं। उल्लास एवं उत्सव से उनका स्वागत करते हैं, पूजन करते हैं और उन्हें स्थापित करते हैं। लेकिन एक समय उनका भी विसर्जन करना पड़ता है। इससे स्पष्ट संदेश मिलता है कि— पूज्यनीय एवं वंदनीय देव का भी त्याग करना पड़ता है क्योंकि जब तक हम त्याग नहीं करेंगे, तब तक हम उनका आव्हान कैसे करेंगे? विसर्जन करने के बाद ही हम उसका फिर से आव्हान करते हैं, पूजन करते हैं और स्थापित करते हैं।
समय की अविरलता इसी विसर्जन से उत्पन्न होती है। यह हमें जड़वत् होने से रोकता है। देव विसर्जन हमें सुख और दुख, उत्सव और शोक, आनंद एवं पीड़ा जैसे भावों का दर्शन कराता है। यह हमें प्रेरणा देता है कि सुख के आनंद में दुख का स्मरण कर विचलित नहीं होना चाहिए। हमें हर परिस्थिति में समान भाव रखना चाहिए। जब हमें किसी मनचाही वस्तु की प्राप्ति नहीं होती या हमारे जीवन में कोई संकट आता है तो हम बहुत दुखी हो जाते हैं और एक निश्चित दायरे में सिमट जाते हैं। हमारी योग्यता पर अंकुश लग जाता है और हमारी क्षमता ही कुंठित होने लगती है। उस समय एक विसर्जन का भाव ही है जो हमें बाहर निकलने में सहायता करता है।
विसर्जित भाव ही हमारे मन का भोजन है। यह भोजन हमें आंतरिक रुप से परिपक्व बनाता है। बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अनेक छोटी-छोटी उपलब्धियों के मोह को त्यागना पड़ता है। हमारे ऋषि मुनि विरक्त एवं विसर्जित भाव से ही वर्षों तक कठिन तपस्या करते थे, जिसके कारण उन्हें अनेक सिद्धियां प्राप्त होती थी। जिनका उपयोग लोक कल्याण के लिए करते थे। दूसरी तरफ विसर्जन का भाव लोक कल्याण का बहुत बड़ा कारक भी है। इससे सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय का अनुकरणीय भाव जन्म लेता है।
🙏 JAI RADHE RADHE SHYAM JAI SHREE SHYAM👏