श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
एक चींटी और कछुए में मित्रता थी। चींटी का स्वभाव है कि— वह हर समय काम करती रहती है। चींटी मेहनती होती है लेकिन कछुआ आलसी होता है। वह चींटी को काम करते हुए देखकर यही कहता कि तुम व्यर्थ में क्यों इतना काम करती हो। मेरी तरह आराम से क्यों नहीं रहती। लेकिन चींटी कुछ न कुछ करती ही रहती थी। कभी वह बिल की व्यवस्था करती तो कभी राशन पानी की। वह हर समय कछुए को आलसी- आलसी कहकर चिढाती रहती थी। क्योंकि कछुआ एक जगह पर पड़ा रहता था।
एक दिन चींटी अपने परिवार के लिए खाना लेने बाहर गए हुई थी।
कछुए ने सोचा— आज मैं चींटी को परेशान करता हूं। आज मैं उसको दिखाता हूं जो वह हर समय मुझे आलसी- आलसी कहकर चिढाती है, वास्तव में आलसी कैसा होता है? यह सोच कर कछुवा चींटी के बिल के ऊपर बैठ गया।
चींटी जब लौटकर आई तो उसने देखा कि कछुआ उसके बिल के ऊपर पत्थर बना हुआ बैठा है। चींटी ने उसके खोल पर दस्तक दी तो उसने अपने खोल के बाहर थोड़ा- सा मुंह निकाला।
वह चींटी को गुस्से से बोला— क्या है?
चींटी बोली— यह मेरा घर है। यहां से हट जाओ। कछुआ बोला— देखती नहीं, मैं आराम कर रहा हूं। मुझे यहां से कोई नहीं हटा सकता। जाओ तुम भी मेरी तरह आराम करो।
चींटी ने कहा— क्या तुम्हें अपने आलस में सुख मिलता है?
कछुए ने कहा— मैं क्या जो भी मेरी तरह अपने हाथ पांव सभी कामों से खींच कर अपने में लीन हो जाता है, वही सुखी है। यह कहकर कछुआ अपने खोल के भीतर समा गया।
चींटी तो मेहनती थी। उसने थोड़ी देर तक सोच- विचार किया और फिर कछुए के पास से बिल बना कर जमीन के भीतर- भीतर अपने बिल में प्रवेश कर गई। फिर सभी चीटियां संगठित होकर कछुए के नीचे पहुंच गई और उसे काटने लगी। आखिर कछुआ चींटियों के प्रहार से कब तक बचता। इसलिए उसने आलस त्याग कर वहां से हटना ही पड़ा।
जब कछुआ बिल से हट गया तो चींटी मुस्कुराते हुए कछुए के पास आई और बोली— अब बताओ! तुम्हें सुख किस में मिलता है। चिंटियों से कटते रहने में या अपने आलस को त्यागने में।