श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
आज के समय यदि कोई भी भगवद् कृपा प्राप्त करना चाहता है तो उसकी प्राप्ति का एकमात्र साधन भक्ति है क्योंकि भक्तवत्सल भगवान तक पहुंचने का मार्ग तो यह भक्ति ही है। एक भक्त ही उस परम पिता परमेश्वर को अपने हृदय मंदिर में आसीन करने के लिए सर्वप्रथम अपने हृदय को निरंतर ध्यान और साधना के द्वारा स्वच्छ और वासना रहित करने में सक्षम हो जाता है तभी वह भगवद् कृपा प्राप्त करने का अधिकारी बनता है।
क्योंकि जब तक उसके मन मंदिर में कोई दूसरा विराजमान होगा अर्थात् काम, वासना, मोह, लोभ आदि अवगुणों का वास होगा, तब तक उस ईश्वर के रहने के लिए स्थान ही कहां हो सकता है। वह तो उसे एकांत साधना द्वारा ही प्राप्त कर सकता है। तभी तो हमारे ऋषि- मुनि जन संसार सुख को त्याग कर जंगलों एवं गुफाओं में साधना कर उस परमात्मा का दर्शन कर सके और भक्ति के चरम सुख को प्राप्त कर भगवद् कृपा प्राप्त करने में सफल हुए।
नारद जी ने भी भक्ति का सर्वोत्तम लक्षण बतलाते हुए कहा कि—
श्रेष्ठ भक्त सदैव यही सोचता है कि मैं अपने नेत्रों से एकमात्र अपने प्रभु की मोहिनी सूरत को ही देखता रहूं। कानों से अपने आराध्य का गुणगान ही सुनता रहूं। अपनी जिव्हा से भगवान के गुणों का ही गान करूं। मन से प्रभु का मनन और साथ में अपने आराध्य देव का चिंतन करुं। क्योंकि मन, वचन, कर्म से भगवान की सेवा करने में ही इंद्रियों की सफलता है।
इस प्रकार देखा जाए तो भगवान का अनन्य भक्त भगवान के अतिरिक्त किसी भी प्रकार के सुख एवं पदार्थ की कामना नहीं करता। मरणासन्न होने पर भी भगवान से यही प्रार्थना करता है कि मरने के उपरांत भी मेरे शरीर से संबंधित पांचों तत्व अपने-अपने तत्वों में मिल जाएं। लेकिन फिर भी वह, यह उम्मीद रखता है कि मेरे शरीर का जलीय अंश उस सरोवर में मिल जाए, जहां मेरा आराध्य स्नान करें। आकाश अंश उस आकाश में मिले, जिसके नीचे मेरा आराध्य अपनी अद्भुत लीलाओं से भक्तों को मोहित करता हो। मेरा अग्नि अंश उस शीशे में मिल जाए, जिसमें मेरा आराध्य प्रतिदिन अपनी मोहिनी सूरत निहारता हो।
मेरा पृथ्वी अंश उस भूमि में मिल जाए जिस पर मेरे आराध्य के चरण-कमल नित्य प्रति पड़ते हों और वायु अंश उस पंखे की वायु में मिल जाए, जिससे मेरे आराध्य का ताप दूर किया जाता हो।
एक भक्त की सदैव यही कामना रहती है की जीवित रहते हुए मैं अपने को भगवान की सेवा में लगा दूं और मरने के पश्चात् भी इस नश्वर शरीर से भगवान की सेवा कर सकूं। ऐसा भक्त ही भगवद् कृपा प्राप्त करता है।
एक बार की बात है कि— एक महात्मा अपने आप को सिद्ध महात्मा कहने लगा था। लोगों ने भी उन्हें संत की उपाधि दे दी थी। बड़ी भारी भीड़ उसके चारों तरफ रहने लगी थी क्योंकि चारों तरफ यह बात फैल चुकी थी कि इनको काफी सिद्धियां प्राप्त हो गई हैं।
एक व्यक्ति ने पूछा कि— संत जी! अब आप अपने को क्या समझते हो?
तब संत में बड़े गर्व से उत्तर दिया— मेरा स्थान भगवान के चरणों में वैसे ही है जैसे अक्षरों पर एक छोटा- सा बिंदु होता है यानी अनुस्वार होता है।
जब संत जुनैद ने यह बात सुनी तो उन्होंने कहा कि— भगवान उनको सद्बुद्धि दे। इतनी सिद्धियां प्राप्त करने के पश्चात भी वह अपने आप को कुछ समझता है।
कहने का अभिप्राय यह है जो भक्त, भक्ति से सराबोर हो जाता है तो उसको कुछ भी समझने की आवश्यकता शेष नहीं रहती। वह तो उसके चरणों में अपने आप को समर्पित कर देता है। उसका वजूद खत्म हो जाता है। जब तक एक भक्त अपने आपको एक छोटा- सा बिंदु के समान समझता रहेगा, तब तक उसको भगवद् कृपा प्राप्त नहीं हो सकती।