श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
इस संसार में प्रभु- संपदा को छोड़ कर शेष संपदाएं मनुष्य को दुख, तकलीफ, झूठ, छल, कपट, धोखा, विश्वासघात, अन्याय, शोषण आदि के माध्यम से भोग के साधनों का संग्रह करना सिखाती हैं और उसे दुख के भवसागर में डुबोने का काम करती हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि वर्तमान की नई पीढ़ी में नास्तिकता की प्रवृत्ति, आंधी के समान दिन दूनी- रात चौगुनी गति से बढ़ती जा रही है।
यहां तक कि कुछ बुद्धिजीवियों ने तो प्रभु के अस्तित्व को स्वीकार करने से ही मना कर दिया है।
आज जो मनुष्य धर्म, कर्मकांड, ईश्वर आदि विषयों में आस्था रखते हैं, वे प्रायः विज्ञान से वियुक्त हैं और जो भौतिक विज्ञान, यंत्र, सिद्धांत, कला, निर्माण, प्रबंध, व्यवस्था, तकनीकी आदि विशेषताओं से युक्त हैं, वे प्राय अध्यात्म संबंधी विषयों से उपेक्षित हो गए हैं। वास्तव में अध्यात्म क्या है, इससे उनका कोई लेना देना नहीं है।
यदि विज्ञान धर्म से युक्त नहीं है तो अंधा है और धर्म यदि विज्ञान से युक्त नहीं है तो अपंग है। अब तो हमारे सनातन धर्म में भी ईश्वर उपासना, स्वाध्याय, सत्संग, यज्ञ, तप, सात्विक भोजन, नियमित व्यायाम आदि से संबंधित विषय गौण हो गए हैं, इसका कारण पाश्चात्य सभ्यता का आधिपत्य स्थापित हो जाना है। हमारी सनातन संस्कृति विलुप्त होने के कगार पर है।
आज हमारे जीवन में विपत्तियों की भरमार है। इसका कारण भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार न करना ही है। एक विपत्ति (प्रभु कृपा से प्राप्त) सांसारिक विपत्तियों से निजात दिलाकर प्रभु संपदा के उस लोक में पहुंचा देती है, जहां से जीव भौतिकता के समस्त बंधनों से मुक्त हो प्रभु दरबार का स्थाई वासी बन जाता है। जबकि दूसरी विपत्ति (विगत कर्म फल से प्राप्त) कामनाओं से वशीभूत यातनाओं के भौतिक जाल में फंसा कर जीव को न केवल भरमाती है, अपितु बार-बार दुख के सागर में डूबने एवम् उतरने और दुर्लभ जीवन लीला को समाप्त करने के लिए विवश करती रहती है।
विपत्तियों के समय संतों और आचार्यों द्वारा निरूपित किया गया ज्ञान मार्ग, ईश्वर की उपासना, जीवन लक्ष्य प्राप्त करने में सर्वश्रेष्ठ उपादान सिद्ध होते हैं। वे ऐसे कर्म करते हैं जो हमेशा मनुष्यों के कल्याण के लिए होते हैं। उनके कर्म समाज में एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। मनुष्यों व समाज का मार्गदर्शन करने के लिए मील का पत्थर साबित होते हैं।
ज्ञानी गुरु से दीक्षित शिष्य अज्ञान के अंधकार से संघर्ष करते हुए भी अपने सुचिंतन से अपने अभीष्ट तक पहुंचने का मार्ग ढूंढ लेता है, लेकिन अज्ञानी गुरु द्वारा दीक्षित शिष्य तथाकथित मुक्ति मार्गों के बावजूद भी भ्रमवश अपने ही कुचिंतित विचारों में उलझ, अपने दुर्लभ जीवन, समय एवम् ऊर्जा का अपव्यय करता रहता है।
विपत्ति से डरे नहीं सामना करें —
स्वामी विवेकानंद के कई ऐसे जीवन- प्रसंग हैं, जो आम लोगों के लिए लाभदायी हैं। एक बार किसी जनसभा में वे अपने बचपन की एक घटना सुना रहे थे। उन्होंने बताया कि एक बार वे वाराणसी के एक मंदिर गए। वहां उन्होंने पूजा अर्चना की। पूजा के बाद प्रसाद लेकर जब वे मंदिर से बाहर निकल रहे थे, तो बंदरों के एक समूह ने उन्हें घेर लिया। वे उनसे प्रसाद छीनना चाह रहे थे। इसलिए उनका झुंड स्वामी जी के नजदीक आने लगा। उन्हें अपनी तरफ आते देख कर विवेकानंद भयभीत हो गए। वे पीछे की ओर भागने लगे। बंदर भी झुंड के साथ उनके पीछे दौड़ने लगे।
इस घटना को पास खड़े एक वृद्ध संन्यासी देख रहे थे। उन्होंने विवेकानंद को हाथ के इशारे से रुकने को कहा। सन्यासी ने उन्हें डरने की बजाय डर से सामना करने की बात कही। उन्होंने स्वामी जी से कहा कि जितना तुम डर से भागोगे, डर उतना ही तुम्हारा पीछा करेगा। तुम्हें निडर होकर डर का सामना करना चाहिए।
उनकी बात सुनकर स्वामी जी के मन में हिम्मत आई। वे तुरंत बंदरों की तरफ पलटे और उनकी तरफ बढ़ने लगे। उन्हें यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि उनके सामने आ जाने पर सभी बंदर भाग खड़े हुए। किसी ने उनका पीछा नहीं किया।
स्वामी जी ने बढ़िया सीख देने के लिए वृद्ध सन्यासी का धन्यवाद करते हुए कहा—
जिससे जीवन में कोई भी सीख मिले, वही गुरु होता है और एक ज्ञानी गुरु कभी भी पथ पर आने वाली विपत्तियों से डरने की बात स्वीकार नहीं कर सकता। लेकिन प्रभु कृपा की दुर्लभ संपदा पूर्व जन्मों के पुण्य फल से प्राप्त होती है तो उसी की आधारशिला पर फिर युगबोध के इतिहास का दिव्य भवन अवस्थित होता है। फिर प्रभु मानवता के दिशा बोध एवम् जीवन मूल्यों के संरक्षण हेतु विपत्तियों का मंथन कर आदेश की स्थापना करते हैं।
भगवद्कृपा के बिना प्राप्त अथाह संपदा भी देखते- देखते आपके हाथों से छीन अथवा छीनी जा सकती है। जो व्यक्ति प्रभु संपदा को मानता ही नहीं, जो यह सोचता है कि जन्म से पहले मेरा कोई अस्तित्व नहीं था और मृत्यु के पश्चात् भी नहीं रहेगा। भूतों के योग से अकस्मात् मेरा शरीर बन गया है तथा मृत्यु के बाद मेरा अंत है। संसार अकस्मात् बन गया है, संसार को बनाने वाला, संचालन करने वाला भी कोई ईश्वर नहीं है। यह सब कुछ तो सृष्टि की स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसे व्यक्ति के विचार शरीर से परे जा नहीं सकते, वह तो बस इस शरीर को खिलाने, पिलाने, सजाने, संवारने और इसकी रक्षा में ही लगा रहेगा।
आज के मानव समाज में ऐसी मान्यता वाले व्यक्तियों का जीवन प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। खाओ- पिओ और मौज करो। उनकी यह मान्यता बन गई है कि यह जीवन प्रथम और अंतिम है। न पीछे था न आगे होगा। बस येन- केन- प्रकारेण जो कुछ भोगना है, भोग लो। मृत्यु के पश्चात् सब कुछ समाप्त हो जाएगा। इसलिए वह अपने जीवन में कर्मों को संचित करता ही नहीं, जिससे उसे प्रभु संपदा में भागीदार बनने का हक नहीं मिलता।
सर्वथा समर्थ होते हुए भी आप सिवाय पश्चाताप बोध के कुछ करने की स्थिति में नहीं हो सकते। दूसरी और आपके पास कुछ न होने पर भी प्रभु कृपा से आप वह अथाह संपदा पा सकते हैं जिसका उपयोग जनहित एवम् मानव कल्याण में करते हुए आप अदा कर सकते हैं। लेकिन उस संपदा की प्रचुरता में लेश मात्र भी अंतर नहीं आ सकता।
यदि वास्तव में मानव प्रभु संपदा को प्राप्त करने में समर्थ होता तो जितना उसने यश, पद, प्रतिष्ठा एवं वैभव अर्जित किया है, उससे अधिक अर्जित करके दिखाता। हम जीवन में जो भी प्राप्त करते हैं या खोते हैं, वह प्रभु कृपा के बिना संभव नहीं है। अब तो विज्ञान भी परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकारने लगा है— विज्ञान इस बारे में बड़ी शब्द सम्भाव्य स्थापनाएं कर सकता है कि- सृष्टि और पुण्य कैसे होते हैं और कैसे ये तारे और अणुओं आदि का संसार बन जाते हैं। किंतु वह यह बताने में समर्थ नहीं है कि ये द्रव्य और ऊर्जा कहां से आए और विश्व की रचना ऐसी सुव्यवस्थित क्यों है? इसलिए हमारे ऋषियों, गुरुओं और उनके शिष्यों ने जनमानस के हृदय में प्रभु के प्रति आस्था के बीज रोपित करने की कोशिश की है, जिससे वे प्रभु कृपा प्राप्त करके प्रभु- संपदा का संग्रह कर सकें।
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