हमारे जीवन में कर्म की बड़ी महत्ता है। कर्म ही जीवन का आधार है। कर्म ही सृष्टि का आधार है। कर्म हमारे जीवन की वह नींव है, जिससे हमारे भाग्य कर निर्धारण होता है। कर्म के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। फिर कर्म किए बिना कोई कैसे रह सकता है?स्वयं श्री कृष्ण ने गीता में कहा है— तू कर्म कर, फल की चिंता मत कर अर्थात् स्वयं ईश्वर भी कर्म से रहित नहीं हो सकते। लेकिन हम फल की इच्छा से जो कर्म करते हैं, तो हमें निराशा ही हाथ लगती है। निराश व्यक्ति तनाव का शिकार हो जाता है। जिससे उसके मन-मस्तिष्क में अच्छे-बुरे का भेद करने की क्षमता खत्म हो जाती है। इसका एक उदाहरण देती हूं— दार्शनिक सुकरात का नाम आपने जरूर सुना होगा। कहा जाता है कि— वह बहुत बदसूरत थे, लेकिन सुबह उठकर सबसे पहले आईने में खुद को जरूर देखते थे। कहा जाता है कि— उन्होंने इसका कारण यह बताया था कि— आईने में, मैं रोज सबसे पहले अपनी बदसूरती देखता हूं, इससे मुझे ऐसा जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है, जिससे मैं अपने कर्मों से अपने अंदर समाहित गुणों को, इतना निखार सकूं कि— वे मेरी बदसूरती पर भारी पड़ जाए।जब उनसे पूछा गया कि— तब तो सुंदर लोगों को आईना नहीं देखना चाहिए, तो सुकरात ने कहा— आईना उन्हें भी देखना चाहिए, ताकि वह अनुभव करें कि उनके गुण भी उतने ही सुंदर हों, जितना उनका शरीर है। लेकिन उन गुणों को पहचानने के लिए, निखारने के लिए, कर्मों का बहुत बड़ा योगदान होता है। अगर हम कोई कार्य करेंगे ही नहीं तो हम उस में कुशलता कैसे प्राप्त करेंगे। निष्काम भाव से कर्म करते हुए हमें जीवन-रूपी नौका को पार लगाने का प्रयास करना चाहिए।लेकिन मनुष्य के कर्म, पाप और पुण्य दोनों प्रकार के होते हैं। कर्म बंधन का कारण भी है और बंधन से मुक्ति का कारण भी। अशुभ कर्म बंधन का कारण है, तो शुभ कर्म बंधन से मुक्ति का कारण है। जाहिर है यदि हमें अपने जीवन में बंधनों से मुक्त रहना है द्वंद्वो से मुक्त रहना है, दुखों से मुक्त रहना है और सदा आनंदित रहना है तो हमारे कर्म निष्काम होने चाहिए।हमारे प्राचीन ऋषि मुनि और सिद्ध पुरुषों ने कर्म को इतनी व्यापकता से समझाया कि सदैव कर्म करने में हमारी आसक्ति बढ़ जाती है। हम सदैव शुभ कर्म, पुण्य कर्म तो करें हि, पर सिर्फ इतना ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि कामना एवं आसक्ति के लिए किए गए पुण्य कर्म एवं शुभ कर्म भी अंतत: हमारे लिए बंधन का ही कारण बनते हैं। दुखों का कारण बनते हैं। कामना एवं आसक्तिपूर्ण कर्म भी हमारे आनंद में बाधक होंगे।हमारी मुक्ति एवं मोक्ष में बाधक होंगे। प्रभु भक्ति में बाधक होंगे। इसलिए हमें शुभ कर्म करना तो है पर कामना रहित होकर, अनासक्त होकर, कर्म में कर्त्ता पन की भावना से मुक्त होकर।कर्म मार्ग पर चलते हुए हमें ईश्वर के गुणों में प्रीति उसके गुणों का कीर्तन-स्तुति तथा अपने को सर्वथा ईश्वर के अधीन मानकर समस्त कर्म और उनका फल भगवान को समर्पित कर देना, ईश्वर के प्रत्येक विधान में संतुष्ट रहना तथा निरंतर उनके नाम का स्मरण करते हुए ही कर्म करना चाहिए। हम जीवन में सफल हों या असफल, हमें अविचलित नहीं होना चाहिए। जीवन में मान मिले या अपमान हर्ष हो या विषाद दोनों में सम रहकर, दोनों ही स्थिति में अविचलित रहकर हमें कर्म को ही प्रधानता देनी चाहिए। जब हम स्वयं को कर्म के परिणाम से जोड़ लेते हैं, कर्म फल से जोड़ लेते हैं, तो हम सदैव ही सुख और दुख के झूले में झूलते रहते हैं। क्योंकि हमारे कर्म का परिणाम अगर हमारी आशा के अनुरूप आता है, तो हम खुशी से गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं, लेकिन हमारी आशा के अनुरूप नहीं आता तो हम तनाव और अवसाद का शिकार हो जाते हैं। हमें अपने कर्मों में, कर्म फल की आशा,आसक्ति का त्याग करना चाहिए क्योंकि निष्काम कर्म करके ही हम अपने जीवन में आनंद की अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं।