श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
भक्ति की प्रगाढ़ता जब अपनी चरम-सीमा पर होती है, तो परमात्मा वरदान के रूप में भक्त को सद्बुद्धि के रूप में देवी संपदा प्रदान करते हैं। जिससे उसे नाना प्रकार के लौकिक सुख, संपत्ति, धन-दौलत, यश-कीर्ति, पद-प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। वहीं ईश्वर के प्रति नास्तिकता का भाव होने के कारण दुर्बुद्धि-ग्रस्त व्यक्ति को पग-पग पर ठोकर, अपकीर्ति, दुख, संताप, पीड़ा, कष्ट प्राप्त होते हैं। ईश्वर के प्रति नास्तिकता के कारण ही उसकी मति क्षीण हो जाती है और समस्त संपदा नष्ट हो जाती है।
जबकि सद्बुद्धि के कारण असहाय, गरीब, दीन-हीन व्यक्ति भी अपनी जीविकोपार्जन कर लेता है। किसी के समक्ष उसे हाथ फैलाने, भिक्षा मांगने की जरूरत महसूस नहीं होती है। लेकिन जब परमात्मा भक्त को उसकी इच्छानुसार वरदान दे देता है, तो उसमें अहंकार भी आ जाता है और वह अपने आपको उस परम सत्ता से भी ऊंचा समझने लगता है। जैसे— रावण बहुत बड़ा विद्वान था। उसने अपने तपोबल से बहुत सारी शक्तियां और सिद्धियां प्राप्त की थी। ये उसकी दुर्बुद्धि थी, जो माता सीता का अपहरण कर लिया। चूंकि बहुत पढ़ा-लिखा विद्वान होने के कारण, अपने गलत कार्यों के पक्ष में तर्क भी बड़े ठोस दे देता था। जब उसे लगा कि युद्ध में राम का पलड़ा भारी है, मेघनाथ भी स्थिति को संभाल नहीं पा रहा, तो महल में सोए अपने मंझले भाई कुंभकरण के पास गया, जो एक बार सोता तो 6 महीने उठता नहीं था। दुर्गुणों की खूबी होती है, अपने सहयोग, अपने समर्थन में अपने ही दूसरे दुर्गुणों को तुरंत बुला लेते हैं। ये रावण की दुर्बुद्धि ही थी, कि जो ये सब करवा रही थी। बड़े प्रयत्न के बाद कुंभकरण को उठाया गया।
लेकिन जब रावण ने कुंभकरण को जगाया तो उसने राम जी की प्रशंसा और रावण की गतिविधि का विरोध करते हुए कहा—नारद जी ने मुझे जो ज्ञान दिया था, वह मैं तुम्हें बताता, लेकिन अब तो समय चला गया। रावण के बार- बार पूछने पर कुंभकर्ण ने बताया— कि मैं एक रात पत्थर की शिला पर बैठा था, तभी वहां से गुजर रहे नारद जी ने बताया “तुम दोनों भाइयों से परेशान होकर देवगण विष्णु जी के पास गए हैं” और विष्णु ने उन्हें आश्वस्त किया है—कि उन्हें मारने के लिए मैं मनुष्य रूप में अवतरित हो रहा हूं। नारद जी ने आगे कहा—तुम्हारी 6 महीने की नींद पूरी होने से पहले ही यदि कोई जगाएगा तो समझ लेना तुम सबका विनाश तय है। भाई तुमने मुझे बीच में जगाया है, अब नाश तो निश्चित है। वह वक्त बीत चुका जब मैं तुझे समझाता। अब परिणाम भी हमें भोगना ही पड़ेगा। वैसे भी अब ज्ञान बांटने का समय नहीं है। क्योंकि तुम व्याकुलचित्त और अहंकार से भरे हो। जन्म से ही तुम्हारा स्वभाव परद्रोह का रहा है। जो श्री राम भगवान विष्णु के अवतार हैं, तुमने उन्हीं से वैर ले लिया। बिना सद्बुद्धि के तुम्हारे जीवन का कायाकल्प होना कदापि संभव नहीं है।
विकास और विनाश की जड़ सद्बुद्धि और दुर्बुद्धि को माना गया है। सद्बुद्धि मानव मस्तिष्क में सकारात्मक सोच की उपज करने वाली ईश्वर प्रदत्त औषधीय शक्ति है। इससे अवरोधों से भरे मार्ग पर भी रास्ता तैयार करने की क्षमता विकसित होती है और लक्ष्य तय कर लिया जाता है। सद्बुद्धि को जीवन में धारण करने के कारण ही व्यक्ति का विकास होता है। वहीं दुर्बुद्धि-ग्रस्त होने से मनुष्य का हर तरह से पतन हो जाता है। देवता की पहचान सद्बुद्धि और दैत्य की पहचान दुर्बुद्धि के कारण ही होती है।
एक कथा के माध्यम से समझाना चाहती हूं—एक राजा था। एक बार वह कहीं जा रहा था। उसने देखा कि एक लकड़हारा बड़े परिश्रम से अपना काम कर रहा है। राजा उसके परिश्रम से प्रसन्न हो गए और उन्होंने उसे चंदन के पेड़ों का एक वन उपहार में दे दिया। लकड़हारा सामान्य व्यक्ति था। उसे नहीं पता था कि राजा ने उसे कितना कीमती उपहार दे दिया। वह चंदन की महत्ता और मूल्य से अनभिज्ञ था। वह चंदन की लकड़ियां काटकर उन्हें जलाकर भोजन बनाने के लिए प्रयोग करने लगा। जब राजा को अपने गुप्तचरों से यह बात पता चली तब उनकी समझ में आया कि धन का सदुपयोग हर व्यक्ति नहीं कर सकता। उसका उपयोग करने के लिए सद्बुद्धि परमावश्यक है।
सद्बुद्धि के जागरण से ही जीवन की समस्त अनसुलझी समस्याओं का समाधान किया जाना संभव है। प्राचीन समय में समस्त ऋषि-महर्षि और देवगण सद्बुद्धि के जागरण के लिए नित्य गायत्री-उपासना किया करते थे। यही अंतर्दृष्टि के जागरण का मूल था। वैसे तो दुर्गुणों से सीखने जैसा कुछ है नहीं, पर एक बात जरूर सीखी जा सकती है कि ये लोग जो भी करते हैं, तल्लीनता के साथ करते हैं। अच्छे लोगों की दिक्कत यह है कि ये तल्लीनता के साथ कुछ नहीं करते, जबकि अच्छे काम खुलकर पूरी लगन और निष्ठा के साथ किए जाने चाहिए।
सद्गुणों के बिना तो व्यक्ति मूढ़, मूर्ख, पशु- तुल्य निज जीवनयापन करता है। आत्मिक प्रगति और जीवन की सार्थकता का स्वर्णिम अवसर तो सद्बुद्धि के जागरण से ही संभव होता है। प्राचीन-काल में हमारे ऋषि-मुनि जीवन को संस्कारित एवं बंधन मुक्त बनाने के लिए बाल्यकाल से ही सद्बुद्धि के जागरण का अभ्यास कराते थे। जिससे बच्चों में उत्कृष्ट सोच, स्वभाव, कर्म का जन्म होता था और जिसके कारण उनका जीवन मनुष्यता को पाकर सुखी संपन्न, नैतिक प्रधान बनकर गौरवशाली एवं महान बन जाता था।