श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
हम कई प्रकार के योगों के नाम सुनते हैं, परंतु वास्तव में योग मात्र एक तरह का ही होता है। जीवन और परमात्मा का संयोग साधन ही योग का उद्देश्य है अर्थात् जीवात्मा का परमात्मा से मिलन ही योग है।
परब्रह्म परमेश्वर सच्चिदानंद स्वरूप है। उसकी सत्ता है, अस्तित्व है। वह सत्यस्वरूप है। वह चेतनस्वरूप, ज्ञानस्वरूप और आनंदस्वरूप है। सुखों का भंडार एवं आनंद का स्रोत है।
वेदव्यास के पुत्र शुकदेव जी ने पूर्व जन्म में किसी वृक्ष की शाखा में भगवान शिव के मुख से निकला हुआ योगोपदेश श्रवण किया और उसी के सुनने मात्र से पक्षी योनि से उधार पाकर परजन्म में परम योगी बन गए। योग का उपदेश सुनने मात्र से जब इतना लाभ होता है, तब उसकी साधना करने से ब्रह्मानंद तथा समस्त सिद्धियों के प्राप्त होने में क्या संदेह रह जाता है?
परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति तीनों ही सत् हैं, नित्य हैं, अविनाशी हैं। जीव पूर्ण आनंद की प्राप्ति के लिए परमात्मा से सदैव कामना करता रहता है। मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य सृष्टि कर्ता, अनुपम, शुद्धस्वरूप, सर्वशक्तिमान, सर्व व्यापक, सर्वेश्वर के दर्शन करना तथा मुक्ति की प्राप्ति करना है, जिसके लिए वह निरंतर प्रयत्नशील रहता है।
महर्षि पतंजलि ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अष्टांग योग का मार्ग दिखाया है। उन्होंने पूर्ण योग की 8 सीढ़ियां बताई हैं, जिन्हें अष्टांग योग कहा जाता है। जिसका अनुसरण करने से हम दुखों से छूटकर उस मोक्ष धाम अर्थात् मुक्ति, श्रेष्ठ गति, परम आनंद को प्राप्त कर सकते हैं, जिससे मनुष्य का जीवन सार्थक हो जाता है और वह परमात्मा के सच्चे दिव्य स्वरूप के दर्शन कर सकता है।
इसकी पहली सीढ़ी है यम और दूसरी है नियम।
यम में साधक को सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह तथा नियम में शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणीधान को अपनाना होता है।
यम और नियम का उद्देश्य मनुष्य की मानसिक स्थिति को अवगुणों से मुक्त कर उसे ईश्वर साधना के लिए तैयार करना है। इसमें स्वाध्याय का विशेष स्थान होता है।
स्वाध्याय का तात्पर्य वास्तव में धर्म ग्रंथों में वर्णित आध्यात्मिक ज्ञान के संदर्भ में स्वयं का अध्ययन करने से है। श्रीमद्भगवद् गीता में इसका मर्म समझाया गया है। गीता के अनुसार प्रत्येक जीव में ईश्वरीय अंश विद्यमान है। इसलिए मनुष्य को बाहरी संसार में ईश्वर को खोजने की बजाय अपने भीतर ही यह खोज करने चाहिए। इसी प्रकार का आध्यात्मिक ज्ञान अलग-अलग धर्म ग्रंथों से प्राप्त होता है।
योग धर्म जगत का एकमात्र सच्चा मार्ग है। योगाभ्यास के द्वारा चित्त की एकाग्रता प्राप्त हो जाने पर ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और उसी ज्ञान से जीवात्मा को मुक्ति मिलती है। शास्त्र पढ़ने से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह बिना स्वाध्याय के ज्यादा फलदाई नहीं होता। मन, बुद्धि और इंद्रियों को सभी बाहरी विषयों से निवृत करके अंतर्मुखी होकर परमात्मा से मिलने का नाम हू वास्तविक ज्ञान है। यह ज्ञान स्वाध्याय के बिना प्राप्त नहीं होता है। साधारण मनुष्य जो ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह केवल भ्रांति है क्योंकि सभी जीव माया के फंदे से जकड़े हुए हैं और इस फंदे को तोड़े बिना सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। योग एक ऐसी क्रिया है जो हमें दिव्यज्ञान से साक्षात्कार कराती है। योग विहीन सांसारिक ज्ञान वास्तव में अज्ञानता है। इससे सुख की अनुभूति होती है, न कि मुक्ति मिलती है।
स्वाध्याय में मनुष्य ज्ञान के प्रकाश में स्वयं का अध्ययन करता है कि— क्या वह उचित ज्ञान के अनुसार अपना जीवनयापन कर रहा है? यदि वह अपने व्यवहार में कुछ भिन्नता पाता है तो उसे स्वाध्याय के द्वारा सुधारने का प्रयास करता है। स्वाध्याय के द्वारा मनुष्य मानवीय दुर्गुणों से मुक्त होकर ईश्वर से जुड़ने के लिए स्वयं को तैयार करता है। इसके उपरांत ही वह योग द्वारा इस प्रक्रिया को पूरा करता है। स्वाध्याय के महत्व को समझने से पहले यह आवश्यक है कि साधक की आध्यात्मिक ज्ञान में श्रद्धा हो क्योंकि श्रद्धा के द्वारा ही वह, उस ज्ञान को स्वीकार करता है। इसलिए योग में स्थित होने के लिए प्रत्येक मनुष्य को, अपने जीवन में स्वाध्याय को अवश्य अपनाना चाहिए।