श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
भगवद् गीता में भगवान श्री कृष्ण मानव को स्पष्ट संदेश देते हैं— तू सच्चे मन से मेरी शरण में आकर तो देख, मुझ पर विश्वास करके तो देख, फिर देखना तेरे समस्त कार्य में करूंगा, तेरे कुशल-क्षेम की रक्षा भी मैं ही करूंगा। तुझे कोई तकलीफ नहीं होने दूंगा।
सुग्रीव, विभीषण तथा आधुनिक काल में मीराबाई के उदाहरणों से भगवान की इस कृपा को बखूबी समझा जा सकता है।
पांडव पांच थे और कौरव सौ थे। इसके अलावा भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, अंगराज कर्ण, महाबली अश्वत्थामा, कुलगुरु कृपाचार्य आदि महान योद्धा दुर्योधन की सहायता के लिए हर समय उपस्थित रहते थे। वे सभी उस समय के महानतम योद्धाओं की श्रेणी में आते थे। पांडवों की सेना 7 अक्षोहिणी और कौरवों की 11 अक्षोहिणी थी और तो और श्रीकृष्ण की नारायणी सेना भी दुर्योधन के पक्ष में थी जो सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होने के साथ-साथ उनमें पारंगत भी थी। यह सब कुछ होने के बावजूद भी कौरव, पांडवों का कुछ नहीं बिगाड़ पाए और युद्ध में पराजित हो गए।
इतनी बड़ी सेना और बलशाली योद्धाओं के होने पर भी पराजित होना, क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है? इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? तो स्पष्ट पता लगता है की कौरवों के ऊपर भगवत कृपा नहीं थी। दूसरी तरफ पांडवों के पास भगवत कृपा थी और यह कृपा असंभव को भी संभव बना देती है। यह ऐसे-ऐसे चमत्कार कर देती है जिसके बारे में मनुष्य सोच भी नहीं सकता, उसको वह चरितार्थ कर देती है। भगवत कृपा के कारण ही पांडवों को विजय श्री प्राप्त हुई। इसको नकारा नहीं जा सकता। जिसके सारथी स्वयं नारायण हों, उनको भला कौन पराजित कर सकता है?
एक बार देवताओं में अहंकार बहुत बढ़ गया। अग्नि देव, वायु देव और इंद्र देव आदि को अपनी शक्ति का अभिमान हो गया और वे अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझने लगे। वह भूल गए कि नारायण की शक्ति के बगैर उनका कोई महत्व नहीं है। नारायण ने उनके अभिमान को तोड़ने के लिए लीला रची।
उसने अग्नि देव को यक्ष के पास भेजा।
यक्ष ने पूछा— तुम कौन हो?
अग्निदेव ने कहा—मैं अग्निदेव हूं! मेरे अंदर इतनी शक्ति है कि इस संसार के सारे पदार्थों को मैं जला सकता हूं।
यक्ष ने उन्हें एक तिनका दिया और कहा— इसको जला कर दिखाओ।
अग्निदेव ने कहा— इस तिनके की क्या औकात है? मैं तो सारे संसार को जलाने की शक्ति रखता हूं।
यक्ष ने कहा—अगर इस तिनके को जला दिया तो मैं आपकी शक्ति को मान लूंगा।
अग्निदेव ने अपना पूरा जोर लगाया लेकिन वह उस तिनके को जला न सका।
अग्नि देव का अहंकार चूर-चूर हो गया।
तत्पश्चात् वायु देव यक्ष के पास गए।
यक्ष ने उनसे भी यही प्रश्न किया कि— आप कौन हो?
वायु देव ने कहा— मैं वायु देव हूं! मैं पृथ्वी की किसी भी वस्तु को उड़ा सकता हूं।
यक्ष ने वही तिनका वायु देव को दिया और कहा—यह तिनका उड़ा कर दिखाओ।
वायु देव ने अपना पूरा जोर लगाया लेकिन वह भी उस तिनके को उड़ा नहीं सका।
अब इंद्रदेव की बारी थी।
यक्ष ने इंद्रदेव से भी वही प्रश्न किया कि— आप कौन हो? इंद्रदेव ने कहा— मैं इंद्र देव हूं! मैं इतनी बारिश कर सकता हूं, जिसके कारण पृथ्वी पर प्रलय आ जाएगी और सब कुछ जलमग्न हो जाएगा।
यक्ष ने वही तिनका इंद्रदेव को दिया और कहा— इसे पानी में डुबोकर दिखाओ।
इंद्रदेव ने अपना पूरा जोर लगाया लेकिन वह तिनके का कुछ न बिगाड़ पाया।
इस घटना से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि— ईश्वर जब देवताओं से अपने शक्ति खींच लिया करते है, तब यह देवता भी निस्तेज हो जाते हैं। पर्वत, वृक्ष आदि जो भी स्थिर हैं, इन सभी का वजूद तब तक है, जब तक इन पर भगवत कृपा है। ईश्वर की शक्ति के जाते ही यह सब धराशाई हो जाएंगे। युद्ध के पश्चात् श्री कृष्ण ने अर्जुन को पहले रथ से नीचे उतारा क्योंकि वे जानते थे की जब तक वे स्वयं रथ पर विराजमान हैं, तब तक रथ सही सलामत है। लेकिन जैसे ही वे रथ को छोड़ देंगे तो वह जलकर भस्म हो जाएगा। इसलिए उन्होंने पहले अर्जुन को नीचे उतर जाने को कहा। उसके पश्चात् स्वयं नीचे उतरे और उनके उतरते ही रथ जलकर भस्म हो गया क्योंकि उस रथ पर भगवत कृपा थी और जैसे ही ईश्वर की कृपा ने उसका साथ छोड़ा वह धराशाई हो गया।
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