श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
जीवन की सार्थकता इसी में है कि— मनुष्य को दूरदर्शिता का ज्ञान हो।
दूरदर्शिता का शाब्दिक और आध्यात्मिक अर्थ होता है कि— दिव्य दृष्टि का जागृत हो जाना।
इसके बिना मनुष्य के जीवन के उद्देश्य का पता ही नहीं चलता। अपनी अंतर्दृष्टि को जागृत करके मनुष्य आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होते हुए महापुरुषों की श्रेणी मे खड़ा करना ही दूरदर्शिता कहलाता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ईश्वर ने हमें मनुष्य का अमूल्य एवं दुर्लभ शरीर प्रदान किया है। मात्र पेटपूजा, कामवासना के दलदल में डूबे रहना मनुष्य की अदूरदर्शिता है, जो जीवन के पतन का मार्ग है। इस मानव शरीर में अमूल्य रत्नों से भी कीमती विभूतियों और कुबेर का भंडार भरा पड़ा है।
साधारणतः मनुष्य अपने जीवन को लोभ, मोह, स्वार्थ, माया, वासना, कामना तक ही सीमित रखता है, लेकिन दिव्य दृष्टि के जागृत होते ही वह व्यक्ति अपने जीवन को परमार्थ में लगा देता है। ऐसा व्यक्ति साधारण, तुच्छ, निंदनीय, निरर्थक जीवन से ऊपर उठ जाता है और महान गौरव का पद प्राप्त करने में समर्थ बन जाता है। भविष्य में घटित होने वाली अनहोनी घटना का पता दिव्य दृष्टि द्वारा ही संभव हो पाता है। जिसे यह दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है, उसे भविष्य का युग दृष्टा कहा जाता है।
एक समय की बात है कि—
संत नामदेव अपने शिष्यों के साथ प्रतिदिन की तरह धर्म चर्चा में लीन थे। वे अपने शिष्यों को दिव्य दृष्टि के बारे में उपदेश दे रहे थे। अपने शिष्यों को समझा रहे थे कि—
एक बार जब दिव्य दृष्टि जागृत हो जाती है तो फिर संसार की कोई भी वस्तु अदृश्य नहीं रहती।
तभी एक शिष्य ने प्रसन्न किया— गुरुदेव! दिव्य दृष्टि के जागृत होने के पश्चात् क्या हम श्री हरि के दर्शन भी कर सकते हैं।
गुरुदेव ने कहा — क्यों नहीं वत्स! दिव्य दृष्टि के द्वारा ही हम सच्चिदानंद स्वरूप ईश्वर के साक्षात् दर्शन करने में समर्थ होते हैं।
तभी एक दूसरे शिष्य ने प्रश्न किया — गुरुदेव! तो क्या हम ईश्वर को ऐसे ही देख पाएंगे जैसे आपको देखते हैं? ऐसे ही बातें करेंगे जैसे आप से करते हैं? आप कहते हो कि ईश्वर हर जगह मौजूद है पर वह दिखाई तो कहीं नहीं देता तो क्या दिव्य दृष्टि के जागृत होने पर वह हमें हर जगह दिखाई देंगे? क्या आप उनकी प्राप्ति का यही उपाय हमें बता रहे हो।
अपने शिष्य के मुख से यह सब सुनकर संत नामदेव मुस्कुराए, फिर उन्होंने उसे एक लोटा पानी और थोड़ा-सा नमक लाने को कहा।
वहां पर बैठे हुए सभी शिष्यों की उत्सुकता बढ़ गई थी। वह सोचने लगे, पता नहीं उनके गुरुदेव कौन- सा प्रयोग करना चाहते हैं।
जब वह शिष्य नमक और पानी को लेकर आ गया, तब संत ने नमक को पानी में छोड़ देने को कहा।
जब नमक पानी में घुल गया तो संत ने पूछा— बताओ क्या तुम्हें इसमें नमक दिखाई दे रहा है।
शिष्य ने कहा— नहीं, गुरुदेव! नमक तो इसमें घूल गया है। संत ने उसे कहा—पानी को चख कर बताओ।
शिष्य ने पानी चखा और कहा—पानी तो नमकीन हो गया है। नमक इसमें पूरी तरह से मिल गया है। दिखाई नहीं दे रहा।
अब संत ने उस पानी को उबालने को कहा। जब सारा पानी भाप बनकर उड़ गया तो संत ने पूछा— क्या इसमें नमक दिखाई देता है?
शिष्य ने गौर से लौटे को देखा और कहा— हां गुरुदेव!
अब इसमें नमक दिखाई दे रहा है।
संत ने समझाया— जिस तरह नमक पानी में होते हुए भी दिखाई नहीं देता, उसी तरह ईश्वर सर्वव्यापी होने पर भी कहीं दिखाई नहीं देते। उसे केवल अनुभव किया जा सकता है। जिस तरह पानी को गर्म करने नमक पा लिया, उसी प्रकार दिव्य दृष्टि को जागृत करके ईश्वर से साक्षात्कार किया जा सकता है।
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