श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
मनुष्य के जीवन में त्याग का बहुत बड़ा महत्व है। यहां तक की हम जब दूसरी सांस लेते हैं तो पहली सांस का त्याग करना पड़ता है। त्याग मात्र एक कर्म ही नहीं अपितु यह एक भाव है। यह हमें सांसारिक भोगों से अलग करने के साथ ही हमारे व्यक्तित्व निर्माण में भी निर्णायक भूमिका निभाता है।
त्याग के बिना तो मनुष्य की, सांसारिक भोगों की तृष्णा कभी समाप्त ही नहीं होगी। जब हम एक वस्तु की कामना करते हैं और वह वस्तु हमें मिल जाती है तो हम दूसरी की कामना करने लग जाते हैं। जब दूसरी मिल जाती है तो तीसरी की कामना करने लगते हैं। यह सिलसिला अनवरत् चलता रहता है और कभी खत्म नहीं होता, कामनाओं की पूर्ति करते हुए धीरे-धीरे मनुष्य का जीवन ही खत्म हो जाता है, लेकिन उसकी इच्छाएं, तृष्णाएं कभी खत्म नहीं होती, जब तक वह त्याग नहीं करता।
संसार में निवास करते हुए प्रत्येक मनुष्य यही कामना करता है कि वह संसार में सर्वोच्च पद को प्राप्त करे। पूरी सृष्टि पर उसी का शासन चले। वह भली भांति जानता है कि ऐसा तो बिल्कुल भी संभव नहीं है लेकिन फिर भी वह यही इच्छा रखता है। उसमें त्याग करने की भावना बिल्कुल भी नहीं होती क्योंकि उसमें संतोष नहीं है और अधिक प्राप्त करने के चक्कर में वह अपने उस सुख को भी भूल जाता है जो ईश्वर ने उसे दिया है।
जब तक मनुष्य त्याग करना नहीं सीखता, तब तक भोगों की कामनाएं उसके मन में हिलोरें मारती रहेंगी। सांसारिक भोगों की तृष्णा मन का अंधकार है। आज वह जितना भी पुरुषार्थ कर रहा है, जितनी भी दौड़ धूप कर रहा है, वह मात्र अपनी इन्हीं कामनाओं की पूर्ति के लिए ही कर रहा है। ऐसा कौन है जो अपनी मान- प्रतिष्ठा नहीं चाहता, जो सबसे अधिक सुखी होना नहीं चाहता और जो बहुमूल्य अथवा दुर्लभ पदार्थों का मालिक बनना नहीं चाहता। इन इच्छाओं को पूरा करते-करते वह अपना सुख चैन भूल जाता है और अपने स्वास्थ्य को खराब कर लेता है, जिससे वह गंभीर बिमारियों का शिकार हो जाता है और अपनी इच्छाओं को पूरी करने की स्थिति में नहीं रहता। ऐसी अवस्था में उसकी इच्छाएं और भी ज्यादा बलवती होने लगती हैं और वह इस दलदल से कभी बाहर निकल ही नहीं पाता।
महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है कि— त्याग के समान कोई सुख नहीं है। मनुष्य ही नहीं साक्षात् ईश्वर को भी बिना त्याग के यश एवं वैभव की प्राप्ति नहीं हुई। त्याग की प्रतिमूर्ति के रूप में भगवान श्री राम का नाम सर्वोपरि है। पिता की आज्ञा का मान रख कर, राजपाट त्याग कर वनवास को चले गए थे। वनवास को जाते समय सिर्फ राम थे लेकिन जब वनवास पूरा करने के बाद अयोध्या लौटे तो वे मर्यादा पुरुषोत्तम बन चुके थे। राजकुमार सिद्धार्थ ने भी सांसारिक मोह का त्याग मानवता को दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए किया, जिससे वे सिद्धार्थ से भगवान बुद्ध बन गए।
वास्तव में देखा जाए तो जो मनुष्य दूसरों के हित में अपने सुखों का त्याग कर सकता है वही साधारण मनुष्य से ऊपर उठकर एक महामानव बनता है और ऐसे महामानव ही सृष्टि के कल्याण का निमित्त बनते हैं।