01. परमात्मा का अस्तित्व

ऊँ
श्री गणेशाय नम्ः
श्री श्याम देवाय नम्ः

सृष्टि के कण-कण में विद्यमान यह परमात्मा और परमात्मा में हर प्रकार से समाहित यह संपूर्ण रचना मनुष्य के समझने के लिए है, उसको समझ कर उस रचयिता का ज्ञान प्राप्त कर, आनंद प्राप्ति के लिए है। सृष्टि के बाहर  उस सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा के अस्तित्व की कल्पना करने वाले तो जन्म जन्मांतर तक उसकी अनुभूति प्राप्त नहीं कर सकते। परमात्मा इस सृष्टि में ही है, सृष्टिमें जो कुछ है, वह सब उसी का स्वरुप ह, उसी का अस्तित्व है, इतनी बड़ी रचना के रचनाकार का कोई अस्तित्व न हो, यह तो मुमकिन नहीं है, हर कोई अपने अनुसार उस परमात्मा का अस्तित्व ढूंढने की कोशिश करता है। धार्मिक स्थलों पर बढ़ती भीड़ हमें यह सोचने पर विवश करती है, कि वे लोग शायद परमात्मा का अस्तित्व धार्मिक स्थलों पर ही ढूंढने जाते हैं। वहां पर जाकर अपनी इच्छा अनुसार मन्नत मांगते हैं। अगर उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाए तो वह परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, और यदि उनके अनुसार फल की प्राप्ति नहीं होती, तो वे नकारने में भी ज्यादा समय नहीं लगाते। लेकिन ऐसे लोग हर जगह परमात्मा की परीक्षा लेने मैं ही उतारू रहते हैं।

परमात्मा के अस्तित्व को नकारने वालों को मैं एक छोटे से वाक्य से समझाना चाहती हूं , एक संत प्रवचन दे रहे थे, तो वहां बैठी हुई भीड़ में से कुछ व्यक्तियों ने संत से निवेदन किया कि क्या आप हमें परमात्मा के अस्तित्व को सिद्ध करके दिखा सकते हैं। संत ने जैसे ही अपने परमात्मा को याद किया तो उसके मन मस्तिष्क में एक विचार आया। उसने उन सभी मनुष्यों को एक नारियल का पेड़ दिखाया, जिस पर नारियल लगे हुए थे, उसने नारियल की तरफ इशारा किया और बोला क्या आप मुझे बता सकते हैं, कि इतनी ऊंचाई पर नारियल के अंदर पानी कहां से और कैसे आया। कोई उन में पानी डालने की हिम्मत कर सकता है अगर नहीं तो कोई शक्ति है जो इस चर अचर जगत को चलायमान रखती है।

ज्ञानी लोग अपने तपोबल के माध्यम से सर्वशक्तिमान प्रभु को पाने की लालसा में लगे रहते हैं, लेकिन अज्ञानी लोग इस बाह्य संसार में उसके अस्तित्व की परीक्षा लेने में ही लगे रहते हैं। प्रभु का मूल उद्देश्य प्राणी मात्र को शुभ आनंद प्रदान करना है न कि अपने अस्तित्व की परीक्षा देना मनुष्य को छोड़कर विश्व का प्रत्येक प्राणी एक नैसर्गिक आनंद को प्राप्त करता है परंतु मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो सबसे आनंदित दिखाई नहीं देता इसका स्पष्ट कारण है कि परमात्मा की इच्छा है कि वह उसके संपूर्ण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके आनंद की अनुभूति करें। अन्य पशु पक्षियों की भांति मनुष्य परमात्मा का ज्ञान प्राप्त किए बिना आनंद को प्राप्त नहीं कर सकता। उसे सच्चा आनंद तभी प्राप्त होगा जब वह परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर लें। ज्ञान प्राप्त करने का उपाय हमारे ऋषि-मुनियों ने खोजा, ऋषियों ने चिंतन करके पाया कि जहां भी तपस्या करते हैं, स्तुति करते हैं, वहां ईश्वर प्रकट हो जाते हैं, ईश्वर का स्थान सर्वत्र है, किसी भी स्थान पर उनकी अराधना की जा सकती है, इसी विचार के कारण आम जनमानस में भगवान की आराधना करने की अवधारणा का जन्म हुआ। यह गृहस्थी के लिए वरदान की तरह था क्योंकि गृहस्थ, ऋषियों की तरह वन में जाकर एकाग्रचित उपासना नहीं कर सकते थे, यह उनके लिए एक विलक्षण आविष्कार था। इस मे मन को स्थिर करके ईश्वर की आराधना करनी थी। प्रभु ने अपनी इच्छा के अनुरूप मनुष्य को उपादान भी दिए हैं अद्भुत शरीर, विलक्षण विवेक बुद्धि इसका उपयोग कर मनुष्य सहज ही परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

अपनी विवेक शक्ति को विकृतियों से मुक्त कर मनुष्य यदि  प्रत्यक्ष संसार को एक गहरी अनुभूति से देखें, उसका चिंतन करें, तो सहज ही वह परमात्मा के अस्तित्व का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। मनुष्य  को आनंद कोे  खोजने की आवश्यकता नहीं है, वह तो सृष्टि में चारों तरफ फैला हुआ है, मनुष्य को अपनी अनुभव शक्ति को विकसित करना है। अनुभव शक्ति के प्रबुद्ध के लिए उसे कोई विशेष तपस्या नहीं करनी है, वह केवल इस चर-अचर सृष्टि को  एक विस्मय मूलक दृष्टिकोण से देखें, उसे समझे, उसकी गहराई में उतरे, उसे अनुभव करने की ऊर्जा अपने अंतर्मन में समाहित करें, इस बेमिसाल खूबसूरत सृष्टि की रचना करने वाले श्रेष्ठ शिल्पकार का हृदय से सम्मान करें, इतना भर कर लेने से आपकी अनुभव शक्ति  स्वत्  प्रबुद्ध हो उठेगी, यह समस्त सृष्टि एक सुनिश्चित रचना ही तो है, इस रचना का एक-एक कण प्रभुसत्ता के नियमों पर आधारित और अनुशासित है, यह पूरी सृष्टि केवल उसी सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा द्वारा ही नियंत्रित है। यह उस परमात्मा का अस्तित्व ही है, इतनी बड़ी रचना की उत्पत्ति उस परम सत्ता ने अपने से, अपने में, अपने लिए ही उत्पन्न की है।

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