श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
जीवन स्वयं, जीने की एक कला है अर्थात् जीवन वही जिसमें जीने का मर्म छिपा है। जीने का मर्म और जीने का धर्म दोनों ही इस जीवन धारा के प्रवाह में दो किनारे हैं। धर्म यह है कि— जीवन जीने के विज्ञान और कला को एक सूत्र में बांधा जा सके और कर्म यह है कि— जीवन मर्म को प्रकाशित किया जाए, संप्रेषित किया जाए। यदि मनुष्य जीवन का रहस्य जान सके, समझ सके और अपना सके तो उसका लक्ष्य भेद सफल हो सकता है।
जीवन के रंग मंच पर ईश्वर कर्म रूपी पिक्चर के सर्वश्रेष्ठ निर्माता और निर्देशक हैं। हम सब तो केवल उस पिक्चर के अभिनय दल के जीवंत पात्र मात्र हैं। एक कुशल निर्देशक सबसे पहले सभी पात्रों की जांच- परख करता है, फिर उनकी क्षमता, योग्यता, कुशलता के अनुसार उन्हें अभिनय की भूमिकाएं वितरित करता है। जो सबसे दुर्बल होता है, उसे उसी की तरह भूमिका देता है। जो उससे कुछ अधिक बलिष्ठ होता है, उसे उससे कुछ अधिक क्षमता वाली भूमिका देता है। संपूर्ण अभिनय दल में जो सबसे अधिक ऊर्जावान, समर्थ और हर प्रकार की चुनौतियों से निपटने में सक्षम होता है, निर्देशक उसे ही नायक की भूमिका देता है। इस प्रकार कठिन भूमिका से ही उत्तम नायक की पहचान होती है। सहज भूमिका कोई भी कर सकता है। लेकिन जो कठिन से कठिन भूमिकाओं को सहर्ष करने को उत्सुक हो, उसे ही निर्देशक नायक की भूमिका सौंपता है।
वास्तव में देखा जाए तो ईश्वर रूपी निर्देशक भी अति सक्षम और दृढ़ इच्छाशक्ति वाले साहसी व्यक्ति की ही परीक्षा लेता है। दुख तो केवल मनुष्य के पौरुष और साधना की परख के प्रमाण मात्र हैं। दुखों को सहन करने का सामर्थ्य सभी में नहीं होता। पहाड़ जैसे दुख ईश्वर उन्हें ही उपहार स्वरूप प्रदान करता है, जिनकी वह परीक्षा लेता है। ईश्वर परम न्यायवेत्ता और करुणानिधान है। उनके निर्णय जीव के लिए श्रेष्ठ और कल्याणकारी होते हैं। यह जीव का कलुषित मन और अल्पज्ञता ही है कि वह उसमें भी कुछ न कुछ नकारात्मक खोजता रहता है। लेकिन नियत प्रारब्ध से अधिक और समय से पूर्व बहुत कुछ हड़प लेने की इच्छा हमें सत्कर्म और धर्म के मार्ग से भटका कर अधर्म एवं दुष्प्रवृत्तियों की गलियों में ला फंसाती हैं। जीवन के रंगमंच पर ईश्वर द्वारा निर्धारित भूमिकाओं का आनंद पूर्वक निर्वहन ही वास्तव में जीवन जीने की कला है।
जीवन जीने की कला चिंतन से कहीं अधिक यह अनुकरण का मार्ग है। जीवन को जीना एक वैज्ञानिक पद्धति से ही संभव है। कोई भी जीव अवैज्ञानिक तरीके से नहीं रह सकता। यह केवल वचन, प्रवचन या सैद्धांतिक विस्तार का विषय नहीं है। यह प्रयोग एवं व्यवहार का विषय है। कर्म और धर्म का अनुसरण करके ही जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है। यह कला ईश्वरीय है। यह जीवन को दिशा देती है, आयाम देती है। जीवन को संवारने, सहेजने एवं सुंदर बनाने में इस कला का अद्भुत योगदान है। जीवन जीने की कला अलौकिक है। सर्वोत्तम कला ईश्वर से निकटता का दर्शन करा सकती है। यह ईश्वर के दर्शन का रास्ता है। समस्त कलाओं में श्रेष्ठ यह आत्मकला ईश्वर की ओर उस पथिक को लेकर अवश्य जाती है, जो भवसागर से पार जाना चाहता है।
Jai shri Shyam sunder meri gindagi mera Shri Shyam
Jai shree shyam
Jai shree shyam ji