05. सर्वोत्तम धन विद्या

ऊँ
श्री गणेशाय नम्ः
श्री श्याम देवाय नम्ः

हमारे शास्त्रों में विद्या को सबसे बड़ा धन माना गया है ।जिसे जितना खर्च करो वह उतना ही बढता जाता है। विद्या का उद्देश्य प्रथमत: मनुष्य का सर्वांगीण विकास करना है।लक्ष्य के लिए दौड़ लगाते हुए अब तक के जीवन में हम लोगों ने मधुमक्खियों को फूलों पर मंडराते अवश्य देखा होगा।वे एक- एक फूल से मधु का संग्रह करती हैं, जो बाद में हमारे लिए अमृत समान बन जाता है ,इसी तरह हजारों वर्ष पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने तप और ध्यान के बल पर जो ज्ञानार्जन किया उसे अमृत ज्ञान घट स्वरूप चार वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद ग्रंथ तैयार हुए। इसमें शूक्तियों के रूप में दुर्लभ मोती समाहित हैं ,जो आज भी उपयोगी है।

मानव जीवन के साथ ही विद्या की महता बनी हुई है ।आधुनिक दौर में विद्या को शिक्षा का पर्याय माना जाता है। व्यक्ति, समाज, देश और वैश्विक समुदाय के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। शिक्षा ऐसी हो जो जीवन की आकर्षकता के साथ गुणों की आकर्षकता भी लाए।हमारी शिक्षा में वेदों की स्मृतियां होनी चाहिए। वेदों की जिन सूक्तियों को हम प्राचीन और अनुपयोगी मानकर भूल बैठे थे उनको हमें अपने जीवन में स्वीकारना चाहिए ।इन सूक्तियों के अर्थ समझकर और उन्हें आत्मसात कर न सिर्फ हम तनावमुक्त बल्कि अपने चित्त को जागृत कर स्वयं को प्रकाशमान भी कर सकते हैं ।लेकिन हम अपने मूल शिक्षा के उद्गम स्रोतों को ही भूल गए । जिसके कारण हमारे जीवन में विकार बढ़ने लगे।शिक्षकों का दायित्व है कि वे अपने विद्यार्थियों में से विकार निकाले और सद्गुणों का विकास करें। शिक्षक वो धूरी है जो विद्यार्थी को एक पूर्ण मनुष्य बना सकता है। क्योंकि शिक्षक सुधारने वाला होता है और विद्यार्थी सुधरने वाला।

हम कहा करते हैं कि जब तक बच्चा बचपन में है वह पाप नहीं करता। वह हत्या नहीं करता। वह चोरी नहीं करता ।वह मद का सेवन नहीं करता ।बच्चा निर्दोष होता है, उसे छल कपट करना नहीं आता ।हम उसे भगवान का रूप ही मानते हैं ।वह कच्ची मिट्टी की भांति होता है।जिस प्रकार एक कुम्हार कच्ची मिट्टी को भिन्न-भिन्न प्रकार की आकृतियों का आकार देता है, उसी प्रकार एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को तराशने का मादा रखता है ।जिसका एक जीवंत उदाहरण रानी लक्ष्मीबाई है, जिसको उसके शिक्षक ने तराश कर एक वीरांगना बना दिया। लेकिन वही बच्चा जब शिक्षा प्राप्त कर स्नातक हो जाए तो उसकी बचपन की वह परवर्ती बढ़नी चाहिए न की घटनी चाहिए। शिक्षा प्राप्त करने के बाद अगर उसका सर्वांगीण विकास नहीं होता तो, मानना पड़ेगा शिक्षा में कोई दोष है। जिन लोगों ने इस पर चिंतन किया उन्होंने बड़े खेद के साथ अपना मंतव्य सबके सामने रखा। पहले शिक्षक समझता था की मै तो विद्यादान करता हूं। शिक्षा आचार व्यवहार संपन्न रही तो, देश जाति और धर्म का रक्षण होगा।वह शिक्षा हितकारी होगी, वह देश, समाज के लिए कल्याणकारी होगी। शिक्षा से शांति आनंद और मैत्री भाव आएगा। अच्छी शिक्षा से न सिर्फ हमारा मन शांत रहता है, बल्कि हमारे चारों तरफ का बतावरण सुगंधित फूलों की सुगंध से महकता रहता है।

प्राचीन समय में शिक्षा शिक्षकों की रीति- नीति पर आश्रित थी ,पर आज ऐसा नहीं रहा ।वह शिक्षा जो देश और देशवासियों में मैत्री भाव बढ़ाने में सार्थक हो ।सद्गुण बढ़ाने में सहायक हो ।वह शिक्षा नि संदेह अर्थोपार्जन में अधिक सक्षम होगी ।प्राचीन समय में भी हमारे गुरु या शिक्षक किस्से कहानियों या व्याख्यानो के माध्यम से शिक्षा देते थे ।मैं भगवान बुद्ध के एक व्याख्यान को प्रस्तुत करती हूं। भगवान बुद्ध किसी गांव में जीवन के विभिन्न आयामों पर प्रतिदिन व्याख्यान देते थे। उनके प्रवचनों में जीवन का सार छिपा रहता ।एक व्यक्ति बिना नागा किए उनके व्याख्यान सुनता। काफी समय बीत जाने पर भी उसने अपने अंदर कोई बदलाव नहीं पाया, तब वह एक दिन बुद्ध के पास जाकर बोला कि वह लंबे समय से एक अच्छा इंसान बनने के लिए उनके प्रवचनों को सुनता आ रहा है। उसकी बात सुनकर बुद्ध मुस्कुराए उन्होंने उसके सामने उसके गांव का नाम,वहां तक की दूरी, वह वहां कैसे जाता है आदि जैसे प्रश्नों की झड़ी लगा दी ,जब बुद्ध ने उससे कहा कि क्या वह यहां बैठे बैठे अपने गांव पहुंच जाएगा तो वह झुझंला गया। उसने कहा कि ऐसा तो बिल्कुल भी संभव नहीं। उसने वहां तक पहुंचने के लिए पैदल चलकर जाना ही होगा ।इस पर बुद्ध ने कहा कि अब आपको अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा।

आपको अपने गांव का रास्ता पता है, लेकिन इस जानकारी को व्यवहार में लाए बिना आप वहां नहीं पहुंच सकते ।उसी प्रकार आपके पास ज्ञान है, लेकिन इसको अपने जीवन में अमल में लाए बिना एक बढ़िया इंसान नहीं बन सकते। ज्ञान को अपने व्यवहार में लाना आवश्यक है। इसके लिए आपको निरंतर प्रयास करना होगा। ज्ञान को जीवन में उतारे बिना लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती। सृष्टि के उद्गम से लेकर वर्तमान तक, जन्म से लेकर मृत्यु तक, तमाम प्रकार के जीवन चक्र निरंतर चल रहे हैं। इन सभी के बारे में हमें विद्या बताती है। ईश्वर की सभी कृतियों में मानव श्रेष्ठ इसलिए हैं क्योंकि उसमें मनुष्यत्व है, विवेक है, बुद्धि है। बुद्धि तो सब प्राणियों में है लेकिन विवेक सिर्फ मनुष्य में होता है। सद्वविचार, सदाचार, व्यवहार से युक्त मनुष्य ही शांति पथ की ओर अग्रसर होता है, और उसमें मनुष्यता के गुण विकसित होते हैं और यह सब गुण विद्या ग्रहण करने के बाद ही विकसित होते हैं। इसलिए कहा गया है कि सर्वोत्तम धन विद्या है। और सभी धन चुराए जा सकते हैं लेकिन विद्या रूपी धन को कोई चुरा नहीं सकता।

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