100. श्रेष्ठ है घमंडरहित परोपकार

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

आपने अक्सर देखा होगा कि हम दान देते हुए भी पब्लिसिटी पाना चाहते हैं। हम अगर किसी भी भिखारी को ₹1 का सिक्का भी देते हैं तो अपने चारों तरफ नजर दौड़ाते हैं कि हमें कितने मनुष्य देख रहे हैं ताकि हम उनके मध्य एक परोपकारी और श्रेष्ठ मनुष्य सिद्ध हो सकें। परोपकार से अभिप्राय दूसरों की सहायता करने से है, संसार का भला करने से है। किसी की सहायता करते समय हमें यह जान लेना चाहिए कि हमारे बिना भी यह संसार बड़े अच्छे से चलता रहेगा। हमें किसी की सहायता करने के लिए माथापच्ची करने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। लेकिन फिर भी हमें सदैव परोपकार करते ही रहना चाहिए।
यदि हम हमेशा यह ध्यान रखें कि दूसरों की सहायता करना एक सौभाग्य है तो परोपकार करने की इच्छा एक सर्वोत्तम प्रेरणा शक्ति है।

एक दाता के रूप में खड़े होकर और अपने हाथ में कुछ सिक्के लेकर कभी यह नहीं कहना चाहिए कि भिखारी लो, मैं तुझे यह देता हूं। हमें तो स्वयं इस बात के लिए कृतज्ञ होना चाहिए कि संसार में हमें अपनी दयालुता का प्रयोग करने का अवसर प्राप्त हुआ है। धन्य पाने वाला नहीं, देने वाला होता है। सभी भलाई के कार्य हमें एक अच्छा मनुष्य बनने में सहायता करते हैं। हम आखिर अधिक से अधिक कर ही क्या सकते हैं? अस्पताल बनवा सकते हैं, रोड़ बनवा सकते हैं, स्कूल खुलवा सकते हैं, कुछ पैसे देकर किसी गरीब की सहायता कर सकते हैं या कोई और समाज सुधारक कार्य में अपना सहयोग दे सकते हैं, परंतु क्या यह सब करने से हम परोपकार करने में सफल हो गए? आंधी का एक झोका तुम्हारी सारी इमारतों को 5 मिनट में नष्ट कर सकता है। भूकंप तुम्हारी तमाम सड़कों को, अस्पतालों, नगरों और इमारतों को धुल में मिला सकता है। इसलिए संसार की सहायता करने की खोखली बातों को हमें मन से निकाल देना चाहिए। फिर भी हमें निरंतर परोपकार करते रहना चाहिए। क्योंकि इसी में हमारा भला है। यही एक साधन है, जिससे हम पूर्ण बन सकते हैं। वास्तव में देखा जाए तो उसका हम पर आभार है क्योंकि उसने इस बात का अवसर दिया कि हम अपनी दया की भावना उसके काम में ला सकें।

घमंड रहित परोपकार की भावना से भरा हुआ, लोकहित के लिए अपने शरीर को भी त्यागने वाला, मनुष्य के रूप में एक सिद्ध पुरुष हुआ है —महर्षि दधीचि।
एक बार की बात है कि महर्षि दधीचि कठोर तपस्या कर रहे थे। उनके तप के तेज से तीनों लोक आलोकित हो उठे।इंद्र को लगा कि महर्षि उससे इंद्रासन छिनना चाहते हैं। इसलिए उनकी तपस्या को भंग करने के लिए कामदेव और एक अप्सरा को भेज दिया लेकिन वे विफल रहे। तत्पश्चात् वे उन्हें मारने के लिए स्वयं गए। लेकिन उनके अस्त्र-शस्त्र महर्षि के सामने बौने साबित हुए अर्थात् वे उन्हें भेद न सके। वे समाधिस्थ ही रहे। हार कर इंद्र लौट गए।

कुछ समय पश्चात् वृत्रासुर ने देवलोक पर कब्जा कर लिया। देवराज इंद्र प्रजापति ब्रह्मा के पास वृत्रासुर का सर्वनाश करने का उपाय पूछने के लिए गए। तब प्रजापति ब्रह्मा ने इंद्र को बताया कि— वृत्रासुर का अंत महर्षि दधीचि की हड्डियों से बने अस्त्र से ही संभव है। उनके पास जाकर उनकी अस्थियों के लिए याचना करो। महर्षि दधीचि इस समय समाधिस्थ हैं। इंद्र पसोपेश में पड़ गए कि जिन्हें वह मारने गए थे, वे उनकी सहायता क्यों करेंगे? लेकिन और कोई रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था, कुछ तो करना ही पड़ेगा और यह सोच- विचार, करते- करते थक हारकर अंत में दधिचि के पास पहुंचे और तीनों लोकों के मंगल हेतु अस्थियों की याचना करने लगे।
महर्षि विनम्रता से बोले— हे इंद्रदेव, लोकहित के लिए मैं तुम्हें अपना शरीर दान करता हूं। यह कहकर महर्षि ने योग विद्या से अपना शरीर त्याग दिया। उनकी अस्थियों से बने अस्त्र से इंदर ने वत्रासुर का वध किया।

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