104. गुरु – शिष्य परंपरा

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

सदियों से भारतवर्ष की पावन धरा पर गुरु और शिष्य की परंपरा रही है। क्योंकि गुरु के द्वारा ही शिष्य को शिक्षा प्रदान की जाती है। सनातन परंपरा में गुरु अपने शिष्य के मन में चरित्र निर्माण, आपसी प्रेम और भाईचारे के बीज रोपित करता रहा है।
संत कबीरदास ने कहा है— यह तन यानी शरीर विष की बेल के समान है, जिसमें अनेक प्रकार की बुराइयां और खामियां हैं और गुरु ठीक इसके विपरीत है। वह शरीर से इस विष को निकालने में माहिर है। गुरु अमृत की खान है इसलिए यदि शिष्य को अपना सिर काटकर अर्थात् स्वयं को गंवाकर भी गुरु का साथ मिलता है तो शिष्य को यह सौदा सस्ता लगना चाहिए, क्योंकि जो गुरु देता है वह बहुमूल्य ही नहीं अमूल्य है। गुरु अपने अनुसार ही शिष्य को शिक्षा प्रदान करता है क्योंकि वह सदैव अपने शिष्य के हित के बारे में ही सोचता रहता है इसलिए शिष्य से ज्यादा गुरु को पता होता है कि किस प्रकार की शिक्षा मेरे शिष्य के लिए हितकारी साबित होगी।

शिक्षा एक संस्कार है। यह एक ऐसा संस्कार है जो एक आम व्यक्ति को खास बना देता है। क्योंकि इसी संस्कार के द्वारा ही उसके भविष्य का निर्धारण होता है। अगर यह संस्कार एक अच्छे गुरु के द्वारा दिया जाए तो शिष्य का बहुमुखी विकास होता है। एक गुरु ही है जो अपने शिष्य के गुणों को विकसित करने और दुर्गुणों का विरोध करने का रास्ता दिखाता है। गुरु सदैव यही सोचता रहता है कि वह अपने प्रत्येक शिष्य का मार्गदर्शक बने, जिससे जीवन में होने वाले झंझावतो से आसानी से पार पाया जा सके।

एक योग्य गुरु ही स्वयं के वास्तविक ज्ञान से साक्षात्कार करवा सकता है और यह प्रक्रिया अनवरत् चलती रहती है इसके बिना सब व्यर्थ है।
भगवान महावीर ने भी कहा है कि— एक ही शास्त्र पढ़ने योग्य है और वह है, स्वयं की चेतना। एक ही जगह है, प्रवेश योग्य। एक ही मंदिर है, जाने योग्य और वह है स्वयं की आत्मा। स्वयं को जानना, उसका अध्ययन करना ही मनुष्य को वहां लेकर जाएगा, जहां वह इस जीवन के रहस्यों के बारे में खोजबीन करेगा जैसे— मैं कौन हूं? क्या चाहता हूं? मेरा क्या है? कहां से आया? कहां जाना है? आदि बहुत सारे प्रश्न मनुष्य के दिमाग में हिलोरे मारते रहते हैं, जिनका उत्तर उसे कहीं नहीं मिलता क्योंकि वह इनके उत्तर बाहर ढूंढता है, जिस दिन वह अपने अंदर अपनी चेतना में जाकर इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढेगा, उस दिन उसे अवश्य ही इनका उत्तर मिल जाएगा।

गुरु के बिना मानव का जीवन अधूरा है। गुरु के माध्यम से ही मनुष्य आध्यात्मिक मार्ग पर चलकर आत्मतत्व की अनुभूति कर सकता है। उसी मार्ग पर उसे कई प्रश्न अपनी दिव्यता का भान कराएंगे। धन से जीवन की आवश्यकताएं तो पूरी की जा सकती हैं लेकिन ईश्वर की प्राप्ति गुरु के बिना संभव नहीं है। सतगुरु के चरणों से जुड़कर अंधकार और अहंकार से दूर रहकर मानव समाज का कल्याण किया जा सकता है और अपने जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है।

गुरु शिष्य के लिए संसार की सबसे पवित्र ईश्वरीय देन है। यह मनुष्य के जन्म- जन्मांतर के कष्टों के निवारण का रास्ता दिखाकर उसे दिव्य प्रकाश देता है। गुरु के बिना मनुष्य का जीवन ऐसे ही हो जाता है जैसे बिना पतवार की नौका। गुरु के बिना हमें उचित ज्ञान नहीं मिलता। सत्य को पहचानना असंभव- सा लगता है, मन के विकारों को मिटाना मुश्किल हो जाता है। लौकिक जगत् में महापथ का पथिक गुरु धार्मिकता का प्रथम पुरुष होता है जो अपने दिव्य ज्ञान से शिष्य के अंत: करण के तारों को झंकृत कर मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है।

गुरु शिष्य को हर कठिनाई से बाहर निकालने का समाधान करता है। महाभारत में भी श्री कृष्ण ने अर्जुन को न सिर्फ उपदेश दिया बल्कि हर समय उन्हें उचित निर्देश दिया जब- जब वे दिग्भ्रमित नजर आए। गुरु के मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द शिष्य के लिए सत्य होता है। अपनी महत्ता के कारण गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा स्थान दिया गया है। शास्त्रों में गुरु को ईश्वर के विभिन्न रूपों ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में स्वीकार किया गया है।
गुरु को ब्रह्मा कहा गया है क्योंकि वह शिष्य को नया जन्म देते हैं।

गुरु विष्णु भी हैं क्योंकि वह अपने शिष्य की रक्षा करता है।

गुरु साक्षात् शिव भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार करता है। यहां पर संहार करने से अभिप्राय उसके दोषों का अपनी शिक्षा के माध्यम से निवारण करना है।

उपनिषदों में कहा गया है कि गुरु के प्राण शिष्यों में और शिष्यों के प्राण गुरु में बसते हैं। गुरु अपने शिष्यों के विकास के प्रत्येक पहलू को जागृत करता है। शिष्यों को जीवन जीने की कला सिखाता है। एक गुरु को यदि एक चेतनावान् शिष्य मिल जाए तो वह अपने परम संबोधि के विस्फोट से नए युग का निर्माण कर सकता है। ऐसे ही एक शिष्य के साथ भी होता है यदि उसे एक समृद्ध गुरु से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हो तो वह एक नव निर्माण करने का माद्दा रखता है। ऐसे ही एक गुरु और शिष्य का संबंध स्वामी विवेकानंद है। स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को शिष्य के रूप में स्वीकार किया और सनातन धर्म को एक अलग ही स्थान पर पहुंचा दिया। यहां पर गुरु भी महान् थे और शिष्य भी चेतनावान था। एक समृद्ध गुरु ही शिष्य के जीवन के बंद दरवाजों को खोल सकता है। उसके जीवन में एक नया संगीत भर सकता है। आज के समय में एक बार पुनः गुरु शिष्य परंपरा की अनंत श्रृंखला को कायम रखने की बहुत आवश्यकता है।

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