106. विवेक का प्रयोग

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

मनुष्य शरीर प्राप्त करने के बाद हमारा पहला उद्देश्य जीवन में विवेक को जागृत करके उसका समुचित प्रयोग करना होना चाहिए, क्योंकि एक मनुष्य ही है जिसमें विवेक का विकास होता है। विवेक के जागृत होने में आत्मनिरीक्षण की बहुत बड़ी भूमिका होती है।
आत्मनिरीक्षण से अभिप्राय स्वयं के संबंध में विचार करना और स्वयं का निरीक्षण करने से होता है अर्थात् जैसे हम हैं, वैसे ही अपने को जानने और समझने की चेष्टा करना। जीवन का यह महत्वपूर्ण सूत्र है कि— जो व्यक्ति जैसा है अगर वैसा ही अपने को जान ले, स्वीकार कर ले तो उसे इस बात को समझने में बिल्कुल भी देर नहीं लगती कि अब वह कैसा होना चाहता है। ऐसी स्थिति में हमें अपने गुण- दोष दिखाई पड़ने प्रारंभ हो जाते हैं। जब हमें अपने दोषों का पता लग जाता है तो उनसे मुक्त होना आसान हो जाता है। यह ठीक उसी प्रकार से है, जब कोई अध्यात्म में विश्वास करने वाला व्यक्ति अपने अंदर झांकता है तो उसे अंदर की बीमारियां स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगती हैं, तब हम उनसे बच कर अपने आंतरिक जगत् को स्वस्थ रखने की चेष्टा करने लग जाते हैं।

अक्सर होता यह है कि— हम अपने विवेक का विकास नहीं कर पाने के कारण सिर्फ अपनी बाहरी बीमारियों को ही देखते हैं और इनकी पीड़ा को आसानी से अनुभव भी करते रहते हैं। हम इनका इलाज करवा कर अपने शरीर को बीमारियों से मुक्त करते रहते हैं किंतु आंतरिक बीमारियों को जब तक हम अनुभव ही नहीं कर पाएंगे तब तक इनका इलाज होना असंभव है। इनका इलाज तो तभी संभव है, जब हम अध्यात्मिक प्रक्रिया से इस प्रकार की बीमारियों को देखना और अनुभव करना सीख जाते हैं।

विवेक कभी भी दूसरों की तरफ देखने या उनकी नकल करने से जागृत नहीं होता, क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं को देखने में समर्थ नहीं होता, वह दूसरों को देखने में कैसे समर्थ हो सकता है। आत्मनिरीक्षण का अभ्यास करने से ही मनुष्य में चेतना का विकास होता है। यही आत्मनिरीक्षण जितना गहरा होता जाता है, हमारे भीतर उतनी ही अधिक चेतना विकसित होने लगती है। चेतना के जागृत होने पर विवेक का विकास भी स्वयं हो जाता है।

सांसारिक आकर्षणों में फंसा मनुष्य जब संकट मुक्ति के लिए विवेक का प्रयोग करता है तो शंख की तरह मन- मस्तिष्क में चिंतन की गूंज उत्पन्न होने लगती है, जिससे संकट में लड़ने की योजना बन ही जाएगी। मनुष्य जब विराट चिंतन करेगा तो वह जिंदगी के झंझावतों से बाहर निकलकर विजय श्री को अवश्य प्राप्त करेगा। मनुष्य अक्सर इंद्रियों के वशीभूत होकर लौकिक आकर्षणों के लिए पारलौकिक आनंद को भूल जाता है। इंद्रियों की चाहत सुख है, जबकि आत्मा आनंद चाहती है। सुख अस्थाई है और भौतिक धरातल तक ही सीमित है, जबकि आत्मिक आनंद वर्णन से परे है।

महाभारत युद्ध के समय रणक्षेत्र में अर्जुन की सोच संकुचित हो गई थी। वह धर्म और अधर्म के द्वंद्व में फंसा हुआ था। उसके विवेक ने काम करना बंद कर दिया था। उस समय श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाया। श्री कृष्ण ने ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि अर्जुन अपनी क्षमता और दक्षता भूलकर अपने प्रियजनों के मोह में फंस गया था। उसकी सोच संकुचित हो गई थी। अपने सगे- संबंधियों को देखकर वह मोह- माया से लिप्त हो गया था। अक्सर ऐसी स्थिति प्रत्येक मनुष्य की हो जाती है क्योंकि जीवन के संग्राम में लौकिक और पारलौकिक भावनाओं के मध्य द्वंद्व चलता रहता है। अर्जुन अपने विवेक से काम नहीं ले पा रहा था तो ऐसी स्थिति में श्री कृष्ण ने अर्जुन को भौतिक जगत से ऊपर के संसार से परिचित कराने के लिए अपना विशाल रूप दिखाया जो सामान्य मनुष्य नहीं देख पाते। इसे देखने के लिए मन को कंट्रोल करने वाली कामनाओं की लगाम विवेक रूपी रथ- संचालक श्री कृष्ण के हाथ में होनी चाहिए।

मनुष्य नौ माह के गर्भ में आकार ही नहीं बल्कि घर- परिवार और आसपास के परिवेश के संस्कार भी ग्रहण करता है। जन्म लेने के बाद शिशु जब बड़ा हो जाता है और जीवन के संग्राम में उतरता है, तब काम, क्रोध, मोह-माया समय-समय पर उसके विवेक का हरण करते रहते हैं। जब विवेक रूपी प्रहरी से मनुष्य दूर हो जाता है तो विकार रूपी ग्राह चारों तरफ से हमला करता रहता है। इससे बचने के लिए सांसारिक आकांक्षाओं को त्याग कर सदाचार रुपी जीवन जीते हुए, बिना विलंब किए प्रत्येक मनुष्य को सब कुछ भूलकर विवेक के पर्याय श्री कृष्ण की शरण में तत्काल चले जाना चाहिए।

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