108. कर्म प्रधान

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

जीवन के उद्देश्य और लक्ष्य को धारण करने वाला मनुष्य ही अच्छे कर्मों के द्वारा इस शरीर को धन्य कर सकता है वरना खाना- पीना, सोना- जागना, चलना- फिरना यह कार्य तो सभी जीव- जंतु करते हैं। सिर्फ भोजन की चिंता करते- करते सुख समृद्धि के चिंतन में लिप्त होना जीवन नहीं है।यह साधन हो सकता है लेकिन साध्य नहीं। साधन को साध्य मान लेना, कोई समझदारी नहीं है। इसी तरह हर काम को कर्म नहीं कहा जा सकता, जो कार्य जीवन के लिए सार्थक हो वही कर्म है। कर्म अच्छे और बुरे दोनों होते हैं लेकिन सद्कर्मों को ही कर्मों की श्रेणी में रखा जाता है। इसलिए कर्म के महत्व को समझने और उसे करने से ही जीवन के उद्देश्यों को पूर्ण किया जा सकता है और इन उद्देश्यों की पूर्ति ही लक्ष्य प्राप्ति का साधन है अर्थात कुछ भी करते रहना उद्देश्य नहीं है। भटकते रहने से रास्ता नहीं मिलता। जीवन का रहस्य यही है कि लक्ष्य का निर्धारण करके उसकी ओर निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए। वही पथिक अपने लक्ष्य का संधान करने में समर्थ होता है जो धर्म को धारण करके सत्कर्म करता है।

आधुनिक समय में अधिकांश मनुष्यों के चेहरे मुरझाए हुए होते हैं। इसका कारण यही है कि वह अपने जीवन से संतुष्ट नहीं हैं। इस असंतुष्टि के पीछे हमारे स्वार्थ से प्रेरित कर्म होते हैं। आज के समय प्रेम, सद्भाव, सदाचार आदि सद्गुण सिर्फ उपदेश मात्र बनकर रह गए हैं। सभी एक- दूसरे पर कटाक्ष करने और लड़ाई- झगड़ा करने में लगे हुए हैं। बुरे व्यक्तियों के बीच एक अच्छे व्यक्ति को भी मजबूरन अपनी अच्छाई छोड़नी पड़ती है, अगर वह उन जैसा व्यवहार नहीं करता है तो उसे अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी हमें कई जगह पर बड़ी-बड़ी बातें करते मनुष्य दिखाई तो अवश्य पड़ते हैं परंतु वे उपदेश केवल दूसरों के लिए होते हैं। वे अपने जीवन में इन बातों का आचरण नहीं करते। उनका अपना जीवन तो बहुत कम कर्म करके बहुत अधिक प्राप्त करने की लालसा में ही लगा रहता है। परिणाम स्वरूप अधिकांश मनुष्य अपने नियत कर्म का सम्यक पालन नहीं करते।

वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य जीवन ही कर्म प्रधान है। कर्म विहीन होने पर न तो स्वयं का जीवन सुधारा जा सकता है और न ही दूसरों का। मानव वही है जो अपने कर्म से मुख नहीं मोड़ता। सत्कर्म करने वाला ही मनुष्य कहलाने के योग्य है। कर्म के पालन के लिए ही ईश्वर ने मानव का सृजन किया है। सत्कर्म के बिना कोई मनुष्य आदर्श नहीं कहा जा सकता। श्री राम और रावण दोनों ने मानव रूप में जन्म लिया लेकिन कर्मों के अनुसार एक महामानव कहलाए और एक महादानव, यह सब कर्मों के कारण ही हुआ। भगवान भी धरती पर अवतार लेते हैं तो उन्हें धर्म का आचरण करते हुए कर्म का निर्धारण करना पड़ता है।

इस संसार में निवास करते हुए मनुष्य का यह परम कर्तव्य होना चाहिए की वह ऐसे कर्म करे जिससे इस भवसागर से मुक्ति मिले। बार-बार आवागमन के चक्कर से छुटकारा मिले। प्रेम योग और भक्ति योग नामक दो पतवार हैं जिनकी सहायता से जीवन रूपी नौका पार पाया जा सकता है, लेकिन अधिकांश मनुष्य जब तक इस सत्य का दर्शन करते हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। अंत समय में उनको पता लगता है कि जो साधन रूपी यह शरीर मिला था उसका उन्होंने दुरुपयोग किया। अंत काल में पछतावा करने से कुछ हाथ नहीं लगता। इसलिए समय रहते परम लक्ष्य को पाने के लिए निरंतर प्रयास करना चाहिए। आत्मा तक पहुंचने की सफलता में कर्म धर्म ही साधन है। साधना से लक्ष्य की ओर बढ़ना जीवन का ध्येय होना चाहिए। मानव जीवन की यात्रा में आत्मा का परमात्मा से मिलन संभव है। इसलिए हमारे लिए यही आवश्यक है कि हम ठीक से सोच-समझ कर अपने-अपने मनुष्य रूपी कर्मों का पालन करें और फल की आकांक्षा के बिना निष्काम भाव से कर्म करते हुए अपने जीवन को जियें। हमें हमेशा ऐसे कर्म करने चाहिए जो स्वार्थ से परे हों और परोपकार की भावना से किए जाएं।

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