116. पाऐं, स्वयं पर विजय

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

सिकंदर ने एक बार कहा था कि— मैंने दुनिया को जीतने में सफलता प्राप्त की, पर स्वयं से हार गया क्योंकि मेरे अंदर ही लोभ, मोह, अहंकार प्रचुर मात्रा में भरा हुआ है।
दूसरों से तो सभी लड़ लेते हैं। विरोधी या शत्रु से लड़कर उन्हें परास्त करके विजय प्राप्त की जा सकती है। इसमें कोई खास बहादुरी नहीं है। अगर किसी को योद्धा या शूरवीर कहलाने का इतना ही शौक है तो सबसे पहले अपने भीतर बैठे शत्रु से लड़ कर तो देखें कि— क्या वह अपने दुर्गुण, बुराई जैसे असुरों से लड़ने में कामयाब हो सकता है? इससे पता चलता है कि वह कितना बड़ा शूरवीर है।

अक्सर देखा जाता है कि— मनुष्य समझ नहीं पाता कि जीवन कैसे सार्थक बनाया जाए? यह सारी सृष्टि परमात्मा द्वारा ही रचित है। यहां पर वही विजेता बनता है जो स्वयं के अंदर विद्यमान दुर्गुणों से लड़ कर उन्हें परास्त कर देता है। वह सिर्फ परमात्मा के सत्य गुणधर्म को स्वयं में स्थापित करने के लिए प्रयास करता है। स्वयं के अंदर की बुराइयां, कमजोरियां पग- पग पर परास्त करती रहती हैं और मनुष्य प्रत्येक सन उनसे हारता रहता है। इन कमजोरियों, बुराइयों को दूर किए बिना जीवन की ज्योति न कभी प्रज्वलित होती है और न अंतर्मन का तिमिर ही दूर होता है। सदैव भटकाव, अशांति, अभाव, दुख, परेशानी आदि की समस्या बनी रहती है। मनुष्य के अंदर समाहित काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार जैसे पिशाच जब तक मरते नहीं, तब तक जीवन में देवत्व की कल्पना अधूरी ही रहती है। इन्हें दूर करने के बाद ही अंतर्मन को देवत्व के प्रकाश से आलोकित करना संभव हो पाता है।

स्वयं के दुर्गुणों को दूर करने के लिए मनुष्य को प्रयास करना चाहिए। बगैर प्रयास किए अपने अंतर्मन में निहित इन दुर्गुणों से छुटकारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। अगर हम किसी कार्य में सफल होना चाहते हैं तो अपने प्रयासों में स्थायित्व और दृढ़ता लाना अति आवश्यक है। यदि हम अपने ध्येय पर, चाहे वह कितना ही कठिन क्यों न हो, निरंतर लगे रहते हैं तो एक दिन अवश्य सफल होते हैं। पानी की एक-एक बूंद में इतनी ताकत होती है कि वह भारी से भारी पत्थर में भी गड्ढा बना देती है। बेशक उसमें समय लगता है। दरअसल किसी कार्य को निरंतर और लंबे समय तक करते रहने से मनुष्य उस कार्य में निपुण हो जाता है और इस निपुणता में हम अपने लक्ष्य को साध सकते हैं।

एक बार किसी व्यक्ति ने स्वामी विवेकानंद से पूछा कि—बहुत सारे व्यक्ति आपकी निंदा करते हैं, बुराई करते हैं। स्वामी जी उन्हें रोकने का कोई उपाय बताइए। उन्हें कैसे रोका जाए?
स्वामी जी ने उत्तर देते हुए कहा—मैंने अपने अंदर समाहित दुर्गुणों पर विजय प्राप्त कर ली है। अब मुझे किसी के कुछ कहने पर क्रोध की अनुभूति नहीं होती। इसलिए अगर मेरी कोई निंदा करता है तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि मनुष्य अपनी आत्मा के समक्ष सच्चा है तो उसे संसार की परवाह नहीं करनी चाहिए। ये निंदक हमारा मनोबल क्षीण करना चाहते हैं। हमारे कार्य को सिद्धि तक पहुंचते देखना उन्हें अच्छा नहीं लगता। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि कार्य प्रारंभ करने से पहले भीतर से निर्भय बना जाए। उपहास की चिंता नहीं करनी चाहिए। निंदा पर ध्यान न दें क्योंकि ये ऐसे कारक हैं जो हमारी उन्नति में बाधा उत्पन्न करते हैं।

निंदा से कोई भी महापुरुष नहीं बच पाया। उनके परलोक गमन के वर्षों बाद भी विरोधी उनकी निंदा ही करते हैं। यदि महापुरुष निंदा से घबराते तो क्या वे कोई महान् कार्य कर पाते? निश्चित रूप से नहीं क्योंकि उन्होंने निंदा को स्वयं पर हावी नहीं होने दिया। जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने पग-पग पर स्वयं के ही अंदर की कमजोरियों को दूर किया है। उन्होंने सबसे पहले भय को ही समाप्त कर दिया। जब यह भय समाप्त हो गया तो फिर दुगनी उर्जा के साथ श्रेष्ठ कार्यों में सलंगन हो गए। प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य दूसरों को बराबर कोसता रहता है कि तुम्हारे अंदर अमुक दुर्गुण है पर उससे पहले अपने अंदर के दुर्गुणों को दूर करने की कोशिश नहीं करता। इसलिए महापुरुषों ने सबसे पहले अपने अंदर के दुर्गुणों को दूर किया।

हमारे कार्यों को हमारी आत्मा की स्वीकृति भी आवश्यक होती है। यदि किसी कार्य को करने में हमारी आत्मा भयग्रस्त है तो समझ लीजिए वह कार्य न तो हमारे लिए अच्छा है और न ही समाज के लिए। हमें उस कार्य को करने से पहले कई बात चिंतन करना चाहिए। ऐसे कार्यों को न करने में ही भलाई है। निंदकों के भय से श्रेष्ठ कार्य को त्याग देना बड़ी दुर्बलता और कायरता है। इस दुर्बलता को दृढ़ इच्छाशक्ति के बल से परास्त किया जा सकता है। हम बदलेंगे तभी तो युग बदलेगा। स्वयं पर विजय प्राप्त करके ही हम दूसरों को सुधार सकते हैं। परिवर्तन की शुरुआत वास्तव में स्वयं से ही होती है।

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