130. अंतःकरण की ज्योति

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

मनुष्य में अनुभूति के दो सत्र होते हैं— बाह्यकरण और अंतःकरण।
आज के समय मनुष्य का जीवन बाहर की ओर प्रवृत्त है।सुख- सुविधाओं को प्राप्त करने के चक्कर में वह निरंतर दौड़ने को बाध्य है। उसके पास थोड़ा-सा भी ठहर कर, विचार करने का वक्त नहीं है। जिससे वह अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन सके कि— अंतरात्मा क्या कह रही है? वह भौतिक सुखों की लालसा की पूर्ति में इतना तल्लीन है कि उसे अंतःकरण की आवाज सुनाई देना बंद हो गया है। वह एक लक्ष्य को प्राप्त करता है और फिर उस लक्ष्य से ऊब कर दूसरे लक्ष्य की तलाश में दौड़ने लगता है। उसके पास क्या सही है, क्या गलत है, का विचार करने का समय ही नहीं है।

यह सच है कि मनुष्य का अंतःकरण हमेशा उसे अनैतिक कार्य करने के प्रति सचेत करता है। परंतु मनुष्य भोतिक सुखों की लालसा में उसे अनसुना कर देता है। यह सच्चाई है कि अंतःकरण की आवाज ईश्वर की आवाज है। वास्तव में अंतःकरण आत्मा की वाणी है, जबकि वासनाएं शरीर की। हम शरीर की वाणी को तो सुनते हैं लेकिन आत्मा की वाणी को सुनने का हमारे पास समय नहीं है।

अंतःकरण दीपक के समान दूसरी वस्तुओं को न केवल प्रकाशित करता है बल्कि स्वयं को भी प्रकाशित करता है, पर उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक शर्त है अंतःकरण की शुद्धता। अंतःकरण ही सत्य और असत्य के बीच भेद कर सकता है क्योंकि अंतःकरण से बढ़कर कोई ऐसा नहीं है जो हमें अच्छी तरह से जानता हो, समझता हो। निष्काम कर्म की साधना के द्वारा ही अंतःकरण के प्रकाश को प्रकट किया जा सकता है। जिस प्रकार लैंप के अंदर से काले शीशे से सहज प्रकाश बाहर नहीं आ पाता, चाहे हम शीशे को बाहर से कितना ही साफ क्यों ना करें और जैसे ही अंदर से साफ करते हैं वैसे ही प्रकाश चारो तरफ फैल जाता है। उसमें से सब स्पष्ट दिखाई देने लगता है। उसी प्रकार जब तक हमारा अंतःकरण शुद्ध नहीं होगा, तब तक हमारी आत्मा की ज्योति प्रकाशित नहीं होगी इसलिए उसे प्रकाशित करने के लिए हमें अपने अंतःकरण को शुद्ध करना होगा।

एक समय की बात है, महर्षि याज्ञवल्क्य के पास राजा जनक बैठे हुए थे और कुछ परेशान से दिखाई दे रहे थे। थोड़ी-सी देर ठहरने के बाद वह बोले—
महर्षि! मेरे मन में एक शंका है, कृपया करके उसका निवारण कर दीजिए।
महर्षि ने कहा— वत्स! आप मुझे बताओ कि आपके मन में क्या शंका है?
राजा जनक ने कहा— हम जो देखते हैं, वह किसकी ज्योति से देखते हैं?
महर्षि ने उत्तर दिया कि—हे राजन्! यह क्या बच्चों वाले प्रश्न पूछ रहे हो।
प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि— हम जो देखते हैं, वह सूर्य की ज्योति के कारण देखते हैं।
राजा जनक ने पुनः प्रश्न किया— मगर जब सूर्य अस्त हो जाता है, तब हम किसके प्रकाश से देखते हैं?
महर्षि ने कहा— जब हम चंद्रमा के प्रकाश से देखते हैं। लेकिन राजा जनक फिर भी संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने पुनः प्रश्न किया— जब सूर्य न हो, चंद्रमा न हो, तारे नक्षत्र न हों और अमावस्या की बादलों से भरी घोर अंधेरी रात हो, तब हम कैसे देखते हैं?
महर्षि ने कहा— तब हम शब्दों की ज्योति से देखते हैं।
आप कल्पना कीजिए कि बहुत गहरा जंगल है, घनघोर अंधेरा है और एक पथिक मार्ग भूल जाता है। वह आवाज देता है, मुझे मार्ग दिखाओ। तब दूर खड़ा व्यक्ति इन शब्दों को सुनकर करता है, इधर आओ, मैं मार्ग में खड़ा हूं और पहला शब्दों के प्रकाश से उस व्यक्ति के पास पहुंच जाता है।
राजा जनक महर्षि के इस उत्तर से भी संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने कहा कि— जब शब्द भी न हों, तब हम किस ज्योति से देखते हैं?
महर्षि ने उत्तर दिया— तब हम आत्मा की ज्योति से देखते हैं। आत्मा की ज्योति से ही सारे कार्य सिद्ध होते हैं।
राजा जनक ने पुनः प्रश्न किया— यह आत्मा क्या है?
महर्षि ने उत्तर दिया—जो अंतकरण में ज्योति है और सारे शरीर में विद्यमान है। वह आत्मा है, जब कहीं कुछ दिखाई नहीं देता तो यह आत्मा की ज्योति ही जगत् को प्रकाशित करती है।

2 thoughts on “130. अंतःकरण की ज्योति”

Leave a Comment

Shopping Cart
%d bloggers like this: