श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
एक बार अर्जुन ने वासुदेव से पूछा—
मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है और फिर पाप का फल भोगने के लिए 84 लाख योनियों में भटकता रहता है? जब उसको पता है कि— पाप करने से उसको सद्गति प्राप्त नहीं होगी, फिर भी वह पाप करता है।
हे वासुदेव! मनुष्य ऐसा क्यों करते हैं?
श्री कृष्ण ने कहा— मनुष्य की कामना, उससे यह पाप करवाती है और कामना से उत्पन्न होने वाला क्रोध तथा लोभ मनुष्य को पाप करने की तरफ धकेलते हैं। जिस कारण मनुष्य की दुर्गति होने लगती हैं।
मनुष्य के मन में, इंद्रियों में, बुद्धि में अहम् और विषयों की कामना का वास होता है। कामना ही मनुष्य की बहुत बड़ी दुश्मन है। उसके पतन का कारण है।
वासुदेव पुनः कहते हैं— हे पार्थ! ज्ञान रूपी तलवार से इसका भेदन करना चाहिए। सच्चा ज्ञान ही उसे इस पाप से छुटकारा दिला सकता है। मनुष्य के कर्म उसके बंधन का कारण बनते हैं, लेकिन वही कर्म यदि दूसरों की भलाई के लिए किए जाते हैं तो उसकी मुक्ति का कारण भी बन जाते हैं। कर्म यदि स्वार्थ की भावना से करें, कामना से करें तो वह बंधन है और दूसरों के कल्याण के लिए निष्काम भाव से करें तो वही कर्म मुक्ति का कारण बनते हैं।
किसी भी विषय के संबंध में जानकारी प्राप्त कर लेना ही ज्ञान नहीं है। कहीं से कुछ ग्रहण कर लिया और थोड़ा बहुत सीख लिया तो वह सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञान प्राप्त करने की एक विशेष विधि होती है। उसका अनुसरण करके ही सच्चा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
अक्सर क्या होता है कि— मनुष्य कुछ इधर-उधर से पढ़ लेता है, कुछ कहीं से सुन लेता है और अपने मस्तिष्क में संकलित कर लेता है। फिर वह अपने आप को ज्ञानी समझने लगता है और दूसरों को भी ज्ञान बांटना शुरू कर देता है। लेकिन इस प्रकार के ज्ञान से उसकी आत्मा को कोई लाभ नहीं होता और न ही इससे वह दूसरों का कल्याण कर पाता है। ऐसे ज्ञान का कोई भी प्रभाव किसी पर नहीं पड़ता। हां वह स्वयं को संतुष्ट अवश्य कर लेता है।
दूसरों के विचारों को समाज के सामने अपना बताकर परोसना स्वयं के साथ-साथ दूसरों का भी अहित करना है। इससे मनुष्य पाप का भागी बनता है। चोरी तो चोरी होती है। चाहे वह धन की हो, वस्तु की हो या फिर किसी के विचारों की। सच्चा ज्ञान प्राप्त करने से ही मनुष्य का कल्याण होता है। इसमें कोई खर्च भी नहीं आता। यह मुक्ति का सीधा मार्ग है। हमें सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपनी कामनाओं की आहुति डालकर ईश्वर की शरण में जाना चाहिए।
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