153. जीवन और मृत्यु

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

जीवों को सबसे अधिक भय मृत्यु से होता है। अनंत काल तक पुनः पुनः जन्मते और मरते रहना ही महान भय है। इसी जन्म मृत्युरूप महान भय को भगवान ने आगे चलकर मृत्यु संसार सागर के नाम से कहा है। जैसे समुद्र में भी अनन्त लहरें होती हैं, उसी प्रकार इस संसार समुद्र में भी जन्म-मृत्यु की अनंत लहरें उठती और शांत होती रहती हैं। समुद्र की लहरें, चाहो तो गिन भी सकते हो। लेकिन जब तक परमात्मा के तत्वों का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, तब तक कितनी बार मरना पड़ेगा? इसकी गणना कोई भी नहीं कर सकता। ऐसे इस मृत्यु रूप संसार समुद्र से पार कर पाना—हमेशा के लिए जन्म-मृत्यु से छुड़ाकर इस प्रपंच से सर्वथा अतीत सच्चिदानंद ब्रह्म से मिला देना ही महान् भय से रक्षा करना है।

पांडवों के वंशज राजा परीक्षित को जिस दिन यह पता लगा कि उसकी मृत्यु आठवें दिन होने वाली है तो उन्होंने अगले 8 दिन का सदुपयोग किया। उन्होंने 7 दिन तक सुखदेव जी से भागवत कथा सुनी और उसके बाद आठवें दिन मृत्यु को प्राप्त किया। यह वास्तविकता है कि मृत्यु की घटना हर समय जीवन के साथ ही घटित होती है। जब हम जन्म लेकर इस संसार में आते हैं तो मृत्यु भी हमारे साथ ही चली आती है। इसलिए मृत्यु से भयभीत होने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं होनी चाहिए क्योंकि जन्म की तरह मृत्यु भी हमारे जीवन का एक हिस्सा है। यदि कोई मृत्यु को समझ लेता है तो उसे जीवन जीना आ जाएगा क्योंकि मृत्यु को समझने के बाद ही राजा परीक्षित को ज्ञान की प्राप्ति हुई। लेकिन यह सच्चाई है कि मनुष्य अपना संबंध जीवन के साथ तो आसानी से जोड़ लेता है लेकिन मृत्यु के साथ वह कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता। यही हमारी सबसे बड़ी भूल है जब हम यह जान जाएंगे कि मृत्यु और जीवन एक दूसरे के पूरक हैं तो हम अपने और दूसरों के जीवन के प्रति सजग हो जाएंगे। जीवन के प्रत्येक पल को जीना सीख लेंगे। यदि मृत्यु का भय समाप्त हो जाए तो जीवन का आनंद कई गुना बढ़ जाता है।

ऐसे ही महान सेनानी हुए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव। जिन्होंने मृत्यु के भय को ही समाप्त कर दिया था।
27 मार्च 1931 को फांसी के खौफ से बहुत दूर शहीद ए आजम भगत सिंह अपनी जेल की कोठरी में लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। दोपहर के समय जेल में बंद अपने कुछ साथियों से भगत सिंह ने रसगुल्ले की फरमाइश की। रसगुल्लों का प्रबंध किया गया। भगत सिंह ने बड़ी प्रसन्नता के साथ रसगुल्ले खाए। यह उनका अंतिम भोजन था।

इसके पश्चात् उन्होंने फिर से अपने को लेनिन की जीवनी पढ़ने में लगा लिया। दुनिया में बुद्धिजीवी तो बड़े-बड़े हुए होंगे पर क्या कोई ऐसा उदाहरण मिलता है कि मौत सिर पर खड़ी हो और मरने वाला पुस्तक पढ़ने में बिजी हो। खासतौर पर जब उसे मौत के बारे में पता हो। थोड़ी देर में कोठरी का दरवाजा खुला और जेल अधिकारियों ने कहा— फांसी लगाने का हुक्म आ गया है।
भगत सिंह ने जवाब दिया— जरा ठहरो। एक क्रांतिकारी दूसरे से मिल रहा है।
पुस्तक का जो प्रसंग वे पढ़ रहे थे उसे समाप्त किया और एक तरफ रख दी।
फिर कहा— चलो।
सुखदेव और राजगुरु को भी उनकी कोठरियों से बाहर लाया गया। उसके बाद तीनों दोस्त अंतिम बार गले मिले। एक दूसरे की बाहों में हाथ लेते हुए उन्होंने यह गाना शुरू किया—

दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू ए वतन आएगी।

पास खड़े अंग्रेज अधिकारी से भगत सिंह ने कहा—

आप खुश किस्मत है कि आज आपको अपनी आंखों से यह देखने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है कि भारत के क्रांतिकारी किस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक अपने सर्वोच्च आदर्श के लिए मृत्यु का आलिंगन कर सकते हैं।
बस फिर क्या था तूने वीरों ने नारा लगाया —इंकलाब जिंदाबाद और यही नारा लगाते हुए शीघ्र ही फांसी के तख्ते पर झूल गए।

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