161. वास्तविक मूल्य

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

आज के समय में मनुष्य का यह स्वभाव बन गया है कि— उसे जो वस्तु जितनी ज्यादा सहजता से उपलब्ध हो जाती है, वह उसका उतना ही कम मूल्य आंकता है। उसके दृष्टिकोण में किसी भी वस्तु का मूल्य उसके बाजार मूल्य से ही निर्धारित होता है। परंतु यह दृष्टिकोण बिल्कुल भी ठीक नहीं है क्योंकि मनुष्य सोने को अधिक महत्व देता है, उसकी तुलना में अन्न को नहीं। सोना महंगा है और अन्न सस्ता। यदि हम गंभीरता से विचार करें तो देखेंगे कि व्यक्ति सोने के बिना तो जीवित रह सकता है परंतु अन्न के बिना नहीं। ठीक उसी प्रकार अन्न और जल की तुलना करने पर भी हम देखेंगे कि जल ज्यादा जरूरी है। अन्न के बिना तो हम कुछ दिनों तक जीवित रह सकते हैं परंतु जल के बिना नहीं। लेकिन अन्न का मूल्य जल से ज्यादा है। इसीलिए अन्न को जल से ज्यादा महत्व मिलता है। इसी प्रकार जल से अधिक वायु की आवश्यकता है। जल बिना मनुष्य कुछ समय तक जीवित रह सकता है परंतु वायु के बिना कुछ मिनट भी जीवित रहना संभव नहीं है। लेकिन वायु का कोई मूल्य नहीं होता।

लेकिन आज के समय वायु का मूल्य सोने के मूल्य से भी ज्यादा हो गया है क्योंकि कोरोनावायरस के संक्रमण के कारण ऑक्सीजन की कमी हो रही है। जीवन बचाने के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर की डिमांड बहुत ज्यादा बढ़ गई है। डिमांड बढ़ने से उसका वास्तविक मूल्य भी बढ़ गया है। जो ऑक्सीजन हम फ्री में प्राप्त करते थे आज पैसे देकर भी उपलब्ध नहीं हो रही।

आज मानव की स्थिति यह हो गई है की हमें जिस कार्य में धन की प्राप्ति हो, हम वही कार्य करना पसंद करते हैं। हम यह भी नहीं सोचना चाहते कि किस व्यक्ति या वस्तु का हमारे जीवन में धन से अधिक महत्व है। धन को महत्व देने वाले मनुष्य की स्थिति अंत में उसी राजा की तरह हो जाती है, जिसे यह वरदान मिला था की वह जिस वस्तु को भी हाथ लगाएगा वह सोने की हो जाएगी। जब वह भोजन करने के लिए हाथ लगाता है तो भोजन सोने का हो जाता है। अंत में उसे जीवन में वस्तुओं के वास्तविक महत्व का पता चला।

आज के भौतिकवादी युग में हमारी स्थिति भी वैसी ही हो गई है। हम यह भूल गए हैं कि जब तक ईश्वर के साथ एकाकार नहीं होते, तब तक हमारी कोई कीमत नहीं है। क्योंकि इस संसार में सभी को ईश्वर के साथ जुड़ने पर ही मूल्य प्राप्त होता है। जब तक वह ईश्वर के साथ संयुक्त रहकर उन्हीं के लिए कार्य करता है, तब तक ही उसे श्रेय प्राप्त होता रहता है। लेकिन जब वह ईश्वर की उपेक्षा करते हुए अपने स्वयं के गौरव के लिए कार्य सिद्ध करने में जुट जाता है, तब उसे कोई लाभ नहीं मिलता।

ईश्वर और जीव का निकट का संबंध है। जैसे लोहा और चुंबक। लेकिन अब प्रश्न यह उठता है कि— जिस प्रकार चुंबक, लोहे को अपनी ओर खींचता है, उसी प्रकार ईश्वर मनुष्य को अपनी तरफ क्यों नहीं आकर्षित करता? यदि लोहे पर बहुत अधिक कीचड़ लिपटा हो, तब चुंबक उसे आकर्षित नहीं कर सकता। ऐसे ही जीव है, इस संसार में अवतरित होकर जीव माया रूपी कीचड़ में अत्यधिक लिपट जाता है, तब उस पर ईश्वर के आकर्षण का असर नहीं होता। जिस प्रकार कीचड़ को जल से धो डालने पर लोहा, चुंबक को अपनी ओर खींचने लगता है, ठीक उसी प्रकार जब मनुष्य प्रार्थना और पश्चाताप के आंसुओं से माया के कीचड़ को धो डालता है, तब वह तेजी से ईश्वर की ओर खींचता चला जाता है।

मनुष्य और परमात्मा का योग वैसा ही है— जैसे घड़ी का छोटा कांटा और बड़ा कांटा। दोनों घंटे में एक बार मिलकर एक हो जाते हैं। दोनों परस्पर संबंध तथा एक- दूसरे पर आश्रित हैं। साधारण तौर पर देखने पर दोनों अलग-अलग प्रतीत होते हैं, फिर भी अनुकूल अवस्था प्राप्त होते ही वे एक हो जाते हैं। जिस प्रकार एक की संख्या के बाद अनेक शुन्य लगाकर बड़ी से बड़ी संख्या बनाई जा सकती है पर यदि उसी को मिटा दिया जाए तो शुन्य का कोई मूल्य नहीं रहा जाता। उसी प्रकार मनुष्य भी है, जब तक वह ईश्वर के सानिध्य में है, तभी तक उसका वास्तविक मूल्य है। अगर वह ईश्वर से दूरी बना लेता है तो उसका मूल्य शुन्य के समान है।

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