164. प्रेम से करें, क्रोध को पराजित

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

भौतिक संसाधनों को प्राप्त करने के लिए मनुष्य हर समय संघर्ष करता रहता है, जिससे उसका सुख- चैन कहीं गुम हो जाता है। वह हर समय यही सोचता रहता है की मेरे पास और ज्यादा भौतिक वस्तुओं का भंडार हो और जब उसे वह मिल जाता है तो वह ओर पाने की लालसा में लग जाता है। जितने ज्यादा, उसके पास भौतिक संसाधन होंगे, उतना ही उसमें अहंकार बढ़ता जाता है। अहंकार बढ़ने से क्रोध अपने आप आ जाता है। जब देखो, तब दूसरों को नीचा दिखाने में लगा रहता है। वह हमेशा क्रोधित रहता है और जब उसे समझ आता है कि क्रोध करने से मेरा अपना ही नुकसान हो रहा है तो वह उसे छुटकारा पाने की कोशिश में लग जाता है। क्रोध को पराजित करने के लिए तरह-तरह के उपाय करता है, लेकिन वह क्रोध पर नियंत्रण नहीं कर पाता।

एक बार शहर में एक बहुत बड़े संत आए हुए थे। लोग उनसे जीवन से संबंधित विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछ रहे थे।
तभी एक जोश से भरे हुए युवक ने उनसे पूछा— हे महात्मा! जब कोई व्यक्ति दूसरे पर क्रोधित होता है तो वह तेज आवाज में क्यों बोलता है?
ओर तो ओर जिस पर वह क्रोधित होता है वह तो उसके बिल्कुल नजदीक ही होता है, फिर उसे चिल्लाकर बोलने की क्या आवश्यकता है?

संत ने कहा— दरअसल जब कोई व्यक्ति किसी पर क्रोधित हो जाता है तो भले ही उनमें शारीरिक निकटता हो पर उन दोनों के दिलों के बीच की दूरी बहुत बढ़ जाती है। वह जितना ज्यादा नाराज होगा, यह दूरी उतनी ही ज्यादा बढ़ जाएगी। इसी दूरी के कारण लोग चिल्लाकर बोलते हैं।

संत कुछ समय रूकने के बाद फिर कहते हैं—तुमने अक्सर देखा होगा, जब दो लोग प्रेम में होते हैं, तब वे धीरे-धीरे बातें करते हैं, क्योंकि उनके दिल काफी करीब होते हैं और जब वे एक-दूसरे को बहुत ज्यादा प्रेम करने लगते हैं तो उनके दिल आपस में मिल जाते हैं। उस समय उनको परस्पर बात करने के लिए बोलने की भी आवश्यकता नहीं होती। दोनों सिर्फ एक-दूसरे को देखते हैं और एक-दूसरे की बात इशारों में ही समझ जाते हैं।

इसलिए क्रोध को पराजित करने का एक ही तरीका है, सबके दिलों के करीब पहुंचना अर्थात् सभी के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना।

1 thought on “164. प्रेम से करें, क्रोध को पराजित”

Leave a Comment

Shopping Cart
%d bloggers like this: