165. ईश्वर हमारे साथ हैं।

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

महान आध्यात्मिक गुरु परमहंस योगानंद जी अपनी पुस्तक— “मानव की निरंतर खोज” में लिखते हैं— मानव “कुछ और” की निरंतर खोज में व्यस्त है। जिससे उसे आशा है कि उसके मिल जाने पर उसे संपूर्ण एवं असीम सुख मिल जाएगा। उन विशिष्ट आत्माओं के लिए, जिन्होंने ईश्वर को प्राप्त कर लिया है, यह खोज अब समाप्त हो चुकी है। ईश्वर ही “कुछ और” है, यह बात उनकी समझ में आ गई है। उनको एहसास हो गया है कि ईश्वर प्रत्यक्षण हमारे साथ रहते हैं। लेकिन जिनको ईश्वर की मौजूदगी का एहसास नहीं है, वे अब भी उसको ढूंढने में, खोजने में लगे हुए हैं। हमारे जीवन में यह “कुछ और” यानी संपूर्णता की खोज सदैव चलती रहती है।

हमें यह भली-भांति समझ लेना चाहिए कि जब कोई फूल अपने परम सौंदर्य में खिलता है या कोई स्वर दिल को छू जाता है, ऐसी अनगिनत घटनाएं जो प्रकृति में निरंतर चलती रहती हैं, हमें ईश्वर की उपस्थिति का बोध कराती हैं। इस सुख के परम उत्कर्ष का नाम ही ईश्वर है। वैदिक ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही यह सिद्ध कर दिया था कि— भौतिक सुख को प्राप्त कर लेने से आंतरिक सुख को प्राप्त करना संभव नहीं है।

आज के समय हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, वह इस बात की पुष्टि करता है कि— चाहे हमारे पास कितनी भी भौतिक वस्तुएं हों, बाहरी समृद्धि हो, अच्छा बैंक बैलेंस हो, कहने से अभिप्राय है कि— समाज में चाहे उसका रुतबा कितना भी ऊंचा क्यों न हो लेकिन वह स्थाई खुशी नहीं प्राप्त कर सकता। सुख तो एक आंतरिक एहसास है। जो हमारे अंतर्मन में निहित है और हर पल ईश्वर की मौजूदगी का एहसास कराता है। जिससे हमें अहसास होता है कि ईश्वर और जीव एक ही हैं।

हमारी सबसे बहुमूल्य वस्तु की सुंदरता, जिसे हम अपनी आंखों से देख पा रहे हैं, उस वस्तु से विचार हटते ही भौतिक सुख लुप्त हो जाता है। जबकि आंतरिक सुख हमेशा बना रहता है। सच्चाई तो यह है की हम सब प्यासे हैं— आनंद के, शांति के और सुख के। लेकिन यह सुख हम भौतिक वस्तुओं में तलाशते रहते हैं। अद्भुत बात तो यह है कि समस्त वासनाओं के पीछे ईश्वर को पाने की उत्कंठा बनी रहती है क्योंकि परम वैभव एवं ऐश्वर्य के सभी रूप ईश्वर के ही हैं।

जिस प्रकार पानी और बुलबुला भी एक ही हैं। बुलबुला पानी में होता है, पानी में रहता है और पानी में ही समा जाता है। उसी प्रकार जीवात्मा और ईश्वर एक ही हैं। उनमें अंतर केवल यही है कि— एक सीमित है तो दूसरा अनंत। एक आश्रित है तो दूसरा स्वतंत्र। उस अनंत, सर्वव्यापी ईश्वर को जानना नमक के ढेले का समुंद्र की गहराई नापने जैसा प्रयास है। नमक का ढेला समुंद्र में घुलकर विलीन हो जाता है। उसी प्रकार जीव भी जब ईश्वर की थाह लेने जाता है तो अपना अस्तित्व खो देता है और ईश्वर में एकाकार हो जाता है।

इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि— यह मनुष्य का शरीर एक मटकी के समान है। मन, बुद्धि और इंद्रियां, पानी, चावल और आलू के समान मान लेते हैं। पानी, चावल और आलू मटकी में भरकर आग पर रख देने से वह गर्म हो जाते हैं। उन्हें हाथ लगाने से कोई भी जल जाएगा लेकिन जलाने की शक्ति न तो मटकी में है और न ही पानी, चावल या आलू में है बल्कि जलाने की शक्ति तो आग में होती है। इसी प्रकार मनुष्य के भीतर विद्यमान ईश्वरीय शक्ति के कारण ही मन, बुद्धि और इंद्रियां कार्य करती हैं। इनके अभाव में निष्क्रिय हो जाती हैं।

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