श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
समस्त सृष्टि के संचालक ईश्वर, मानव की किसी न किसी रूप में जीवन पर्यंत परीक्षा लेते ही रहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि— वे मानव से अत्यंत स्नेह करते हैं। ईश्वर गुरु के समान हैं तो मनुष्य शिष्य के समान। अज्ञानता के पथ पर भटकते हुए अपने शिष्य के व्यवहार पर ईश्वर को दया आती है। इसलिए वे अपने अनुभव की हथोड़ी से उसके व्यक्तित्व को तराशते रहते हैं। उसे पुचकारते हैं तो फटकारते भी हैं।
उनका पुचकारना और फटकारना, मानव के जीवन में, सुख-दुख, जय-पराजय, लाभ- हानि, यश- अपयश या यूं कहें कि अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थितियों के चक्र के रूप में चलता ही रहता है। मानव हमेशा यही चाहता है कि— उसके जीवन में सदैव अनुकूल परिस्थितियां रहे अर्थात् हमेशा खुशी और आनंद का वातावरण बना रहे और मुश्किल परिस्थितियों का सामना न करना पड़े यानि दुखों के बादल उसके जीवन में कभी न मंडराएं। हर हाल में जीवन को मधुर बना कर रखना चाहता है। परंतु अक्सर ऐसा नहीं होता। परिस्थितियां कभी अच्छी होती हैं और कभी बुरी यानि कभी सुख होते हैं तो कभी दुख। सभी के जीवन में सुख और दुख का यह चक्र निरंतर चलता ही रहता है।
हम में से ज्यादातर मनुष्य इसलिए निराश- हताश हो जाते हैं की संसार में सब कुछ उनके अनुकूल नहीं हो रहा। अक्सर हम यही देखते हैं कि थोड़ी- सी प्रतिकूल परिस्थितियां आते ही हम कहीं अटक जाते हैं और अनुकूल परिस्थितियों में सुख के वशीभूत होकर भटक जाते हैं। ज्यादातर दुख में तनावग्रस्त हो जाते हैं, डिप्रेशन में चले जाते हैं तो सुख में अहंकार उन पर हावी हो जाता है जबकि इसके विपरीत होना चाहिए। मानव को सुख में तो फूलना चाहिए और दुख में घबराना नहीं चाहिए। उसे हमेशा याद रखना चाहिए कि सुख और दुख जीवन रूपी रथ के दो पहिए हैं। उनसे कभी घबराना नहीं चाहिए। यह हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि परिस्थितियों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है।
जीवन में चाहे कैसे भी उतार-चढ़ाव आएं, हमें उनका डटकर सामना करने की क्षमता विकसित करनी चाहिए। मानव यदि जीवन जीने की कला को सीख ले तो किसी भी प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद अपने जीवन रूपी पथ से नहीं भटकता। इसलिए जब भी कभी जीवन में दुख, तकलीफ हो तो शिकायत की जगह हमें अपने नजरिया को व्यापक बना लेना चाहिए। जिसका नजरिया बड़ा होता है, उसके सामने कोई भी मुश्किल बड़ी नहीं होती। मानव को हर प्रतिकूल परिस्थिति को एक चुनौती और अवसर की तरह लेकर सीखना चाहिए। जीवन में कभी भी परिस्थितियों से हारना नहीं चाहिए बल्कि उनका डटकर मुकाबला करना चाहिए। क्योंकि तेज सूर्य को भी अपने उदयकाल में अंधेरे से लड़ कर उसे भगाना पड़ता है। उसके उपरांत ही वह प्रखर हो पाता है।
ऐसा नहीं है कि ईश्वर अपने द्वारा बनाई गई अनमोल कृति यानि मनुष्य को दुखी देखना चाहता है इसलिए उन्हें दुख देता है, पीड़ा देता है। ईश्वर जब अपने बच्चों को दुखी देखता है तो उनको स्वयं भी पीड़ा होती है परंतु इससे मानव के होने वाले कल्याण की भावना से उन्हें सुख भी प्राप्त होता है। जीवन में निखरना है तो पिटना तो पड़ेगा ही, तभी वह कुंदन बनेगा क्योंकि कुंदन, सोने को तपा कर ही प्राप्त होता है। ईश्वर यही चाहता है कि मानव को जो अनमोल जीवन प्राप्त हुआ है, उसका वह सदुपयोग करे। किसान जब तक परिश्रम नहीं करेगा, तब तक अन्न का उत्पादन कैसे संभव हो सकेगा? यह सच्चाई है कि कोई भी परीक्षा प्रारंभ में कष्टप्रद प्रतीत होती है लेकिन जब परिणाम अपेक्षित आ जाए तो वही सुखदाई हो जाती है। इसे केवल वही मनुष्य ही नहीं अपितु उससे जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को गर्व एवं संतोष की अनुभूति होती है।
कई बार ऐसा भी होता है कि मनुष्य परीक्षाएं देते- देते इतना थक जाता है कि उसे अपने गुरु समान ईश्वर पर अत्यंत क्रोध भी आता है। वह ईश्वर की आलोचना भी करता है लेकिन ईश्वर उसका हित चिंतन करना नहीं छोड़ता। अपने कलुषित विचारों से कई बार मनुष्य अपने ईश्वर के प्रति असंतोष व्यक्त करता रहता है परंतु ईश्वर सदैव उसके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता रहता है। जिस प्रकार गुरु जीवन के हर पड़ाव पर शिष्य के भाग्य, भविष्य और ज्ञान को समृद्ध करने के लिए कृत संकल्पित होते हैं, उसी प्रकार ईश्वर भी हर एक जीव को अच्छे व सच्चे मार्ग की ओर उन्मुख करने के लिए उत्सुक होकर परीक्षा लेते रहते हैं। परीक्षा लेना वास्तव में गुरु द्वारा शिष्य को हर क्षण जागरूक व चौकन्ना करना है। उसमें कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उनसे लड़ने की क्षमता विकसित करना है।
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