श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि— भगवान के स्वरूप की प्राप्ति का नाम योग है और भगवान प्राप्ति के निमित्त किए हुए साधन की रक्षा का नाम क्षेम है अर्थात् भगवत प्राप्ति हेतु किए गए प्रयासों को ही योगक्षेम की संज्ञा दी गई है। कहने का अर्थ यह है कि— मनुष्य को तो केवल निष्काम भाव से परमात्मा का चिंतन करना है। साधक को अपनी प्राप्ति का साधन तो वह स्वयं बना देते हैं।
एक साधक को साधना में तीन चीजों की आवश्यकता होती है— साधक, साधना और साध्य
यानि भक्त, भक्ति और भगवान।
साधक वे हैं जो साध्य तक पहुंचने के लिए साधना पथ पर अग्रसर हैं।
साध्य वह है, जिसकी प्राप्ति के लिए साधक साधना पथ पर चल रहा है।
साधना वह प्रचेष्टा है, वह सुनियंत्रित संग्राम है, जिससे साधक, साध्य को प्राप्त करना चाहता है अर्थात् साध्य को प्राप्त करने का मार्ग है।
इसी मार्ग का अनुसरण करते हुए बहुत सारे ऋषि- मुनियों और तपस्वियों ने अपने साध्य से साक्षात्कार किया है।
अध्यात्मिक साधना में साधक को अनेक प्रकार की बाधाओं से लड़ना पड़ता है। अपने कुसंस्कार, दुर्गुण सभी को त्याग कर आगे बढ़ना पड़ता है। साधक को साधना में ऐसे ही तपना पड़ता है जैसे सोने को तपा कर कुंदन बनाया जाता है। साधक को सिर्फ अपने लक्ष्य पर ध्यान रखकर निरन्तर लक्ष्य की ओर बढ़ना पड़ता है।
एक साधक को साधना करने के लिए योगक्षेम का सहारा लेना चाहिए। योगक्षेम के बारे में भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं कि— जो अनन्य भाव से मेरा चिंतन करते हुए मेरी उपासना करता है, उसका भार में स्वयं वहन करता हूं।
यहां योगक्षेम का अर्थ विद्वान भिन्न-भिन्न बताते हैं। आदि गुरु शंकराचार्य के अनुसार— अप्राप्त को प्राप्त करने का प्रयास “योग” तथा प्राप्त की रक्षा करना “क्षेम” कहलाता है।
योगक्षेम की उपायदेता जितनी आध्यात्मिक क्षेत्र में है, उससे कहीं अधिक लौकिक क्षेत्र में भी है। प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन का योग क्षेम स्वयं वहन करना पड़ता है। संवहन क्या योग से पुरुष और स्त्री तथा पुरुष सिद्धि ही जीवन की सफलता की गारंटी है।
योग क्षेम का एक और उदाहरण हमारे देश के असंख्य वीरों ने अपने प्राणों का बलिदान कर भारत मां को आजादी दिला कर योग की प्राप्ति तो करा दी, क्षेम तब तक सिद्ध नहीं हो सकता, जब तक देश का प्रत्येक नागरिक सैनिक बनकर अपने क्षेत्र में कर्म निष्ठा प्रमाणित नहीं करेगा।
योग और क्षेम इन दोनों शब्दों का प्राण यदि कोई है तो वह है निष्ठा भाव से किया गया संघर्ष। संघर्ष के बिना ये दोनों शब्द निष्प्राण हैं।
अर्जुन कोई और नहीं हम सब हैं। कुरुक्षेत्र का रण हम सबका जीवन रण है। बात चाहे किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने की हो। संघर्ष के बिना इसकी प्राप्ति की कोई संभावना नहीं है। इसलिए साधक को योगक्षेम का सहारा लेकर अपनी साधना को पूरा करना चाहिए।
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