17. गुरु की महिमा

ऊँ
श्री गणेशाय नम्ः
श्री श्याम देवाय नम्ः

गुरु का वास्तविक अर्थ तो यह ध्वनीत होता है कि जो जीवन में गुरुता यानी वजन -शक्ति बढ़ाए। यह भौतिक पदार्थों से नहीं,बल्कि शास्त्रों के निरंतर अध्ययन और चिंतन-मनन से ही संभव है। एक शिक्षक को ही हम गुरु की उपाधि नहीं दे सकते,बल्कि गुरु तो वे सब भी हैं, जिनसे हम जीवन की कठिनाइयों में सीख लेते हैं। एक छोटी सी चींटी भी हमारी गुरु हो सकती है। उससे भी हम कठिन परिश्रम और अपने से 10 गुना अधिक भार उठाने की सीख ले सकते हैं। वे हमें मिलजुल कर कार्य करने और एक साथ रहने की शिक्षा देती हैं। ऋषि दत्तात्रेय एक विख्यात ऋषि माने जाते हैं। वे बहुत बड़े योगी थे। भागवत महापुराण की एक कथा के अनुसार, दत्तात्रेय ने बताया कि उनके 24 गुरु हैं, जिनसे उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। जब इतने महान योगी के 24 गुरु हो सकते हैं, तो हमारे गुरुओं की गिनती नहीं हो सकती। हम तो प्रकृति के कण-कण से शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। हम  बाहरी गुरु से तो धोखा खा सकते हैं,लेकिन हमारे अंतर्मन में बैठा वह परब्रह्म परमात्मा हमें हर समय एक गुरु की तरह शिक्षा देता रहता है और हमें इन धोखों से बचाने में हमारी मदद करता है। सच तो यह है कि हर मनुष्य गोविंद बनकर ही जन्म लेता है। यही कारण है,  कि ईश्वर के पाने जैसा सुख, जन्म देते ही मां को मिलता है।

भगवान और गुरु दोनों साथ मिलें, तो गुरु के चरणों में समर्पित हो जाना चाहिए।

संत कबीरदास

जिस गुरु की और कबीर का संकेत है ,उस गुरु के दो चरण हैं- पहला चरण बुद्धि और दूसरा चरण विवेक। जिसने भी गुरु के इन चरणों को मजबूती से पकड़ लिया, उसका गुरुत्व और गुरुत्वाकर्षण बढ़ जाता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष उसी की ओर खींचे चले आते हैं। यह गुरु हमें बाह्य् जगत में नहीं मिल सकता, इसको हमने अंतर्जगत में तलाशना पड़ेगा। इस गुरु को पाने के लिए मां के गर्भ में 9 माह पोषित होते समय स्नेह, प्रेम, करुणा, दया, आत्मीयता एवं आनंद की जो अनुभूति हुई, उसी को जीवन में विकसित करने की जरूरत है। यह सारे गुण मिलकर व्यक्ति के गुरुत्व को बढ़ाते हैं।

गुरु और शिष्य के आत्मिक संबंधों का एक सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करती हूं- जापान में ध्यान की एक प्राचीन पद्धति है जेन। जेन गुरुओं में बनकेई का नाम बड़ी श्रद्धा और प्रेम के साथ लिया जाता है। एक बार जेन मास्टर बनकेई ने ध्यान करना सिखाने के लिए एक कैंप लगाया। पूरे जापान से कई बच्चे उनके पास सीखने के लिए आए। कैंप के दौरान एक दिन किसी छात्र को चोरी करते हुए पकड़ लिया गया। अन्य छात्रों ने उस चोर को पकड़ लिया। वे उसे पकड़कर बनकेई के पास ले गए। उन लोगों ने उस चोर के बारे में पूरी बात बताई। उन लोगों ने चोरी करने वाले छात्र को सजा स्वरूप कैंप से बाहर करने का अनुरोध बनकेई  से किया। बनकेई ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और चोरी करने वाले छात्र को पढ़ने दिया। कुछ दिन बाद फिर उस छात्र ने चोरी की और अन्य छात्रों ने बनकेई से दोबारा उसे कैंप से बाहर करने का अनुरोध किया। इस बार भी बनकेई ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। तीसरी बार जब उस छात्र ने चोरी की, तो सभी ने मिलकर एक पत्र लिखा, जिसमें यह उल्लेख किया गया, यदि उस चोर छात्र को स्कूल से नहीं निकाला गया, तो सभी छात्र कैंप छोड़ देंगे। पत्र पढ़कर बनकेई ने जवाब दिया, कि आप लोग जानते हैं, कि क्या सही है और क्या गलत। इसलिए आप सभी कहीं और पढ़ने जा सकते हैं। यह बेचारा तो यह भी नहीं जानता कि क्या सही है और क्या गलत है। यदि इसे मैं नहीं पढ़ाऊंगा, तो फिर कौन पढ़ाएगा। इसमें विवेक और बुद्धि दोनों की कमी है। यह सुनकर चोरी करने वाला छात्र फूट-फूट कर रोने लगा। अब उसके मन का मैल धुल गया था।

गुरु और शिष्य का यही आत्मीयता का एक अनमोल रिश्ता होता है, जिसमें गुरु अपने शिष्य की बुराइयों और अच्छाइयों को भली-भांति जानता है। कहा भी गया है- कि गुरु वही जो अपने शिष्य की बुराइयों का अंत करें और अच्छाइयों को समाज के सामने प्रस्तुत करें, जिससे उसका शिष्य अपने जीवन में एक अच्छा मुकाम हासिल करे। वही गुरु श्रेष्ठता की उपाधि पाता है, जो अपने शिष्य से हार जाए। अंतर्जगत का यह गुरु सच में हर पल हारता है। एक-एक उपलब्धि, रिद्धि-सिद्धि और समृद्धि देने के बावजूद उसे लगता है, कि कुछ और देना बाकी है। कठिनाई यही है, कि इसे पाने का स्थान कहीं और है, लेकिन हम इसे इस बाह्जगत में तलाश रहे हैं, मुट्ठी बांधकर जब बच्चा इस भौतिक संसार में आता है, तो वह इसलिए रोता है, कि मां के गर्भ में जो अनमोल रत्न मिला जिसे वह मुठ्ठी में बांधकर इस संसार में लाया वहां इसकी जरूरत ही नहीं। अंत में सब कुछ यहीं छोड़कर खाली हाथ ही लौटना पड़ता है। इसलिए गुरु के लिए सर्वश्रेष्ठ वाक्य “शीश कटाए गुरु मिले तो भी सस्ता जान” शत प्रतिशत सही है। यह शीश अहंकार का है जिससे मनुष्य को अपने मान-सम्मान, ख्याति, बड़प्पन के लिए नकारात्मक कार्य करने पड़ते हैं और न जाने कितनी उर्जा व्यर्थ में गंवा देनी पड़ती है।

गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, जिससे भीतर से हाथ का सहारा देकर बाहर से चोट मार-मार कर और गढ़-गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकालते हैं।

संत कबीरदास

अंधकार में प्रकाश फैलाने वाला पूर्णिमा का चंद्रमा यह कह रहा है कि आकाश-सी ऊंचाई और व्यापकता चाहिए, तो इन गुणों को आत्मसात करना चाहिए।

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