श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
मौन से अभिप्राय यह नहीं है कि— हम सिर्फ वाणी से चुप हो जाएं और बोलना बंद कर दें यानी वाणी को लगाम लगा लेना मौन की श्रेणी में नहीं आता। सच्चा मौन तो विचारों से मुक्ति है। मौन रहकर मनुष्य अपने अंदर झांकता है। जिससे वह अपनी अंतरात्मा से संवाद करता है, उस को जाग्रत करने की कोशिश करता है।
अंतरात्मा या यह कहें कि—आत्मा को जागृत करने की कोशिश करता है, जो सुप्तावस्था में है। आत्मा जो अजर- अमर है। अगर एक बार उसका अपनी आत्मा से संपर्क हो गया तो समझो उसने परमतत्त्व ईश्वर के साथ साक्षात्कार कर लिया।
श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है की— बोलो या न बोलो, कहीं भी रहो, यदि तुम्हारा मन 24 घंटे ईश्वर के ध्यान में लगा हुआ है और प्रसन्न है तो वही मौन है। फिर गाओ तो भी मौन और चुप हो जाओ तो भी मौन। मन प्रसन्न है, तब खुशी मनाओ तो भी मौन और एकांत में बैठ जाओ तो भी मौन। ध्यान देना, कुछ नहीं करने की अवस्था नहीं बल्कि होने की अवस्था का नाम मौन है।
इससे यह स्पष्ट संदेश मिलता है कि— श्री कृष्ण स्वयं यह कहते हैं की वाणी को लगाम देना मौन नहीं है बल्कि पूरा समय ईश्वर में ध्यान लगाना मौन की अवस्था को प्राप्त करना है। बहुत सारे ऋषि-मुनियों ने मौन को धारण किया। उन्होंने अपने जीवन का बहुत लंबा समय मौन रहकर या पहाड़ों, गुफाओं में एकांत अवस्था में रहते हुए व्यतीत किया और उस परमात्मा से अपने आप को एकाकार किया। लेकिन हमने मौन को केवल चुप रहना ही समझ लिया। हम अकेले बैठ जाते हैं और बोलना बंद कर देते हैं, यही मौन की परिभाषा है। लेकिन वास्तव में मौन ऐसा नहीं है। मनुष्य अकेला बैठता है तो उसके दिमाग में विचार ही विचार आते रहते हैं। हम अपनी जुबान पर तो रोक लगा सकते हैं लेकिन विचारों पर रोक लगाना हमारे सामर्थ्य से बाहर है। लेकिन जब किसी सिद्ध पुरुष के सानिध्य में बैठे हैं तो मन की हलचल स्वयं ही समाप्त हो जाती हैं और हमें शांति महसूस होने लगती है।
मेरा मानना है कि यदि मनुष्य अपने जीवन में कुछ समय सिर्फ अपनी जुबान पर लगाम लगा ले तो वह भी, भले ही कुछ समय ही सही, मौन धारण तो कर ही सकता है। क्योंकि जिसको देखो, उसको सुनाने की लगी रहती है। वाणी पर बिल्कुल भी कंट्रोल नहीं है। बहुत ज्यादा बोलते हैं। अगर मौन धारण करेंगे तो कम बोलेंगे और कम बोलेंगे तो ज्यादा झूठ नहीं बोलेंगे। एक तो वह झूठ बोलने से बचेंगे और दूसरा किसी की निंदा करने से बचेंगे। इससे एक तो यह फायदा होगा कि उनमें सच बोलने की भावना पनपने लगेगी और दूसरा उनमें मौन रहने की क्षमता भी विकासित हो जाएगी।
बहुत से मनुष्य ऐसे भी हैं जो यह दावा करते रहते हैं की हम सिर्फ मौन की भाषा ही समझते हैं। वास्तव में देखा जाए तो मौन को समझने की आवश्यकता ही क्या है? मौन कोई समझने की भाषा नहीं है। कोयल की कुहू- कुहू कोई समझने का विषय है। नदी के कल- कल को क्या भाषांतर की जरूरत है। चांद धीरे-धीरे निकलता है, उसे समझने की जरूरत नहीं है, उसे देखना ही पर्याप्त है। हवा की सरसराहट क्या कोई समझ पाया है, उसे तो सिर्फ महसूस किया जाता है। इसी तरह मौन है, इस का आनंद लो। शब्दों में सब कुछ नहीं कहा जा सकता।
मौन को समझने के लिए कोई साधन नहीं है और उसे समझने की चेष्टा भी नहीं करनी चाहिए। बस अपने आप को मौन में उतारने की आवश्यकता है। ध्यान देना, कुछ नहीं करने की अवस्था नहीं बल्कि होने की अवस्था का नाम मौन है। आप एक बार अपने जीवन में मौन रहने की कोशिश जरूर करना। शुरू- शुरू में बाहरी आवाजें बहुत आएंगी क्योंकि हम चुप हो जाते हैं। जब हम बोल रहे होते हैं तो बाहरी आवाजों का हिस्सा होते हैं। अब मौन हो गए तो बाहरी आवाजें हमारे ऊपर हावी होने लगती है। थोड़ा- सा धैर्य रखने की जरूरत है। तत्पश्चात् बाहरी आवाजें कितनी भी हों, शोर कितना भी हो, मौन रखने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लगातार अभ्यास करते रहने से बाहर की आवाजें सुननी बंद हो जाती हैं और अंदर की आवाजें सुनाई देने लगती हैं।
जब हमें अपने ही अंदर की आवाजें सुनने लगें तो हम ध्यान की अवस्था को प्राप्त करने लगते हैं। अनेक प्रकार की आवाजें हमारे अंदर से आने लगती हैं। उस समय डरना नहीं है बल्कि उनको शांत करना है। यह सच है कि उनको शांत करना थोड़ा- सा मुश्किल है परंतु अपने आप पर विश्वास और थोड़ा- सा धैर्य हमें उस अवस्था से भी पार ले जाता है।
उसके बाद मौन की एक और अवस्था आती है कि— अंदर की आवाज आनी बंद हो जाती हैं और हम बिल्कुल शांत हो जाते हैं। एक सन्नाटा छा जाता है और हमारे विचार बंद हो जाते हैं। हम शांत चित्त होकर सिर्फ एक दृष्टा की भांति उनको देखते रहते हैं। यही मौन की असली अवस्था है। इस अवस्था में हम अपनी आत्मा से संपर्क करके परम तत्व परमात्मा में एकाकार होने की कोशिश में लग जाते हैं। जब हम उस परम तत्व से संपर्क स्थापित कर लेते हैं तो असलियत में यही मौन है और यही आत्मा की चेतन अवस्था है।
रमण महर्षि कहते हैं कि— भाव विचार शुन्य हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में किसी सिद्ध पुरुष का हाथ हमारे सिर पर होना बहुत आवश्यक है। उनका होना हमें संतुलित करता है।
मौन एक ऐसी साधना है, जिसमें किसी भी प्रकार का दासत्व एवं अहंकार नहीं होता। मौन रहकर मनुष्य स्वयं को जानने की कोशिश करता है। मौन एक ऐसा समर्पण है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व में निखार आता है जो मौन धारण करना सीख लेता है, उसको भक्ति अपने आप आ जाती है। मौन एक प्रकार की भक्ति ही है, जिसमें भक्त मौन रहकर सिर्फ अपने ईश्वर के बारे में विचार करता है। जो मौन धारण कर लेते हैं, उनको सिर्फ नाद मुक्त वीणा की आवाज ही सुनाई देती है। मौन एक ऐसी साधना है जो भक्ति, प्रेम, करुणा और उपासना का संगम है।
भक्ति भाव के इस संगम को प्राप्त करने के लिए मौन सबसे अच्छा माध्यम है। मौन साधन भी है और श्रद्धा भी। उत्तम वाणी भी मौन की श्रेणी में आती है। जो मौन की भाषा को समझ गया, वह अपनी वाणी को वश में करना सीख जाता है और जो वाणी को वश में करना सीख जाता है, समझो उसने मौन की भाषा सीख ली है। इसलिए जितनी आवश्यकता हो, उतना ही बोलना चाहिए और यदि बोलना पड़े भी तो सिर्फ सत्य बोलें।
Jai shree Shyam meri jindagi shree Shyam