177. कल्याणकारी मार्ग

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

मानवीय शरीर बड़ा दुर्लभ है, परंतु है यह अस्थाई एवं नश्वर। इसे एक दिन अवश्य मिट जाना है। बुद्धिमान मनुष्य वही है जो इस नश्वर शरीर से ईश्वर का स्मरण करता हुआ कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होता है।

आज के समय संसार में चारों तरफ भौतिकता, विषय- लोलुपता, झूठ तथा छल-कपट आदि कुविचारों ने मनुष्य को अपने शिकंजे में दबोच रखा है। धार्मिकता, नैतिकता सत्य तथा परमार्थ के विचारों के प्रचार की अत्यधिक आवश्यकता है। ऐसे में हमें अपने सनातन धर्म की तरफ ध्यान लगाना चाहिए और यह देखना चाहिए कि किस प्रकार हमारे पूर्वज, जिनकी संतान होने का हमें गौरव प्राप्त है, उन ऋषियों, मुनियों, मनीषियों ने स्वयं तो आध्यात्मिकता, सत्यता, नैतिकता के मार्ग पर चलकर आत्मिक उन्नति के शिखर को छुआ ही, बल्कि इसके साथ-साथ समस्त संसार को भी इसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए पूरे विश्व का मार्गदर्शन करते आए, ताकि संसार का प्रत्येक मनुष्य सुख-शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए अपना परलोक संवार सके।

अगर हमें अपने परलोक को संवारना है और आवागमन के चक्कर से छुटकारा पाना है तो हमें कल्याणकारी मार्ग को अपनाना होगा और उसके लिए हमें अपनी पुरातन संस्कृति में लौटना होगा। वही एक ऐसा मार्ग है, जिस पर चलकर हम अपना कल्याण कर सकते हैं क्योंकि आज हम अपने ऋषि- मुनियों और महापुरुषों की शिक्षा को भुलकर मोह- माया के चंगुल में बुरी तरह फंस चुके हैं, जिसके कारण हम में से प्रत्येक मनुष्य दुखी एवं परेशान हैं। चिंता से ग्रस्त हैं। हमें अपनी ध्यान- साधना वाली पद्धति को अपनाना होगा और मोह माया, काम क्रोध रूपी लोलुपता से बाहर निकलकर ईश्वर का स्मरण करना होगा, तभी हमारा कल्याण हो सकता है क्योंकि यही एक कल्याणकारी मार्ग है।

मनुष्य शरीर अत्यंत दुर्लभ है, श्रेष्ठ है, परंतु है यह नश्वर, अस्थाई एवं क्षणभंगुर। यह हम में सेे प्रत्येक को पता है। हम यह भी भली-भांति जानते हैं कि— यह हमेशा रहने वाला नहीं है। एक दिन अवश्य ही इसे मिट्टी में मिल जाना है। इस संसार में न तो किसी का शरीर आज तक कायम रहा है और न ही हमेशा कायम रह सकता है। यह प्रकृति का अटल नियम है। यह सब कुछ जानते हुए भी हम मोह माया रुपी शिकंजे से बाहर नहीं निकल पाते।

जिस प्रकार शमा जलती है, प्रकाश देती है, परंतु उसका बुझना निश्चित है। जैसे फूल खिलता है, अपनी मुस्कुराहट और सुगंध से सबको आकर्षित करता है, परंतु उसका मुरझाना निश्चित है। वह अवश्य मुरझाएगा। ठीक उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य के हृदय का स्पंदन एक दिन थम जाना है और जो सांस मनुष्य ले रहा है वह भी एक दिन निश्चित ही रुक जाएगी।

हम प्रतिदिन देखते हैं कि प्रातःकाल सूर्य उदय होता है। धीरे-धीरे आकाश की ऊंचाइयों को छूता हुआ शिखर पर पहुंचता है और उसके बाद ढलना शुरू हो जाता है और सायं होने पर अस्त हो जाता है। कली खिलती है, खिलकर फूल बनती है और फिर वह फूल कुम्हलाकर और पत्ता-पत्ता हो कर बिखर जाता है।

भवन का निर्माण किया जाता है तो उसकी नींव भरी जाती है। फिर सुदृढ़ दीवारें खड़ी की जाती हैं। उन दीवारों पर मजबूत छत डाली जाती है, परंतु चाहे कितना भी सुदृढ भवन क्यों न बनाया हो, धीरे-धीरे उसमें ह्रास होना प्रारम्भ हो जाता है और फिर एक दिन वह भी आता है जब वह आलीशान और सुदृढ़ भवन खण्डहर बन जाता है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी जन्म लेता है और धीरे-धीरे उसकी आयु बढ़ने लगती है और वह यौवन में पदार्पण करता है। तत्पश्चात् उसके शरीर में ह्रास आरंभ हो जाता है और धीरे-धीरे वृद्धावस्था उसके शरीर पर अपना अधिकार जमा लेती है। मुरझाए और कुम्हलाए हुए फूल की तरह उसका शरीर हड्डियों का ढांचामात्र रह जाता है और अंत में वह शरीर मिट्टी में मिल जाता है।

हमने जरा विचार करके देखना चाहिए कि हमारे देखते-देखते कितने मनुष्य काल के मुख में चले गए। प्रतिदिन हम देखते भी हैं कि — हमारे बुजुर्ग जा रहे हैं। अड़ोसी- पड़ोसी जा रहे हैं। मित्र और सम्बन्धी भी जा रहे हैं। जिनसे हमने जन्म लिया था, उन्हें इस संसार से गए बहुत दिन हो गए। जिनके साथ हम बड़े हुए थे वे भी इस संसार को छोड़कर चले गए। अब हमारी दशा भी रेतीले नदी किनारे के वृक्षों की सी हो रही है जो प्रतिदिन जड़ छोड़ते हुए गिरने की हालत में होते चले जा रहे हैं।

यूनान के प्रसिद्ध विचारक एवं दार्शनिक सुकरात को जब विष दिया जाने वाला था तो उसके शिष्य रोने लगे।

सुकरात जो उस समय बिल्कुल शांत बैठा था, उसने पूछा— किस लिए रो रहे हो?

शिष्यों ने कहा— हम रो इसलिए रहे हैं कि कुछ ही क्षण बाद आपकी मृत्यु हो जाएगी।
सुकरात ने कहा— मृत्यु तो एक दिन होनी ही है। कोई भी प्राणी हमेशा तो जीवित नहीं रहता। जैसे कोई नाटक शुरू होता है तो यह जान लेना चाहिए कि कभी न कभी उसका पटाक्षेप अवश्य होगा। इसी तरह जन्म होते ही यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि इस जीवन की भी एक दिन इतिश्री होनी ही है।
जीवन कितने दिन का है यह नहीं कहा जा सकता, परंतु मृत्यु इसकी एक दिन निश्चित है। यह दावे के साथ कह सकते हैं।

मृत्यु तो अनेक प्रकार से भांति- भांति के बाण लेकर और विषय- विकारों तथा रोगादि के अनेक प्रकार के शस्त्र लेकर हमारे पीछे लगी हुई है। चाहे कोई मनुष्य कितने ही प्रयत्न क्यों न कर ले, दान- पुण्य कर ले, ग्रह- नक्षत्र या देवी- देवता मना ले। यह शरीर एक दिन निश्चय ही नष्ट हो जाएगा।

हमारा यह शरीर अनित्य एवं अस्थाई है। एक दिन हमारे हाथों से चला जाएगा और कब चला जाएगा, इसका भी कोई अता-पता नहीं है। यह बात हमें हमेशा याद रखते हुए अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।

नियम के अनुसार तो बाल्यावस्था के पश्चात् किशोरावस्था फिर यौवनावस्था, फिर प्रौढ़ावस्था, फिर वृद्धावस्था और उसके पश्चात् ही मृत्यु आनी चाहिए। परंतु इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि मनुष्य यह बता सके कि वह वृद्धावस्था तक जीवित रहेगा ही। इस शरीर को तो क्षणभंगुर कहा गया है। यह कभी भी मिट्टी हो सकता है।

संसार की प्रत्येक वस्तु की कुछ न कुछ अवधि निश्चित है। आपने अक्सर देखा होगा कि प्रत्येक वस्तु की एक्सपायरी डेट लिखी होती है। परंतु जीवन की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती। क्या पता मृत्यु कब हमें अपने आगोश में ले ले। हो सकता है कि— जो सांस ले रहे हैं, वह हमारे जीवन की अंतिम सांस हो।

मृत्यु एक सच्चाई है और हमें इसे स्वीकार करते हुए अपने कल्याणकारी मार्ग को प्रशस्त करना चाहिए।

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