178. आनंद पूर्वक जीवन

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

आनंद का शाब्दिक अर्थ होता है— सच्चा सुख या सच्ची खुशी।

प्रत्येक मनुष्य की यह जिज्ञासा रहती है कि— वह आनंद पूर्वक जीवन व्यतीत करे। आनंद पूर्वक जीवन जीने की इच्छा उसके मन में प्रबल रूप से विद्यमान रहती है और इसके लिए वह दिन- रात भागदौड़ करता है। पर्यत्न एवं पुरुषार्थ करता है। परंतु वास्तव में देखा जाए तो दिन-रात भाग दौड़ करने तथा प्रयत्न, पुरुषार्थ करने पर भी मनुष्य को सच्चे आनंद की प्राप्ति नहीं होती। दुख अशांति ही उसके पल्ले पड़ती है। इसका एकमात्र कारण यही है कि वह इस संसार के भौतिक माया जाल से अपने आप को बाहर नहीं निकाल पाता।

मनुष्य हमेशा सुख की प्राप्ति और दुख की निवृत्ति के लिए ही सब कर्म करता है। उसके समस्त जीवन की दौड़-धूप केवल इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए होती है, परंतु फिर भी वह सुख के बदले दुख ही पाता है और दुख, चिंता आदि से मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा दुखों की दलदल में दिन-प्रतिदिन और भी अधिक धंसता जाता है। वह हमेशा यही चाहता है कि उसे ऐसा सुख, ऐसा आनंद और ऐसी राहत नसीब हो जाए, जिसके बाद उसे स्वपन में भी दुख, अशांति, चिंता आदि का मुख ना देखना पड़े। लेकिन यह इस संसार का कटु सत्य है कि— मनुष्य को न तो सच्चे सुख, आनंद की प्राप्ति होती है और न ही दुखों से उसका छुटकारा होता है। मानसिक सुख शांति ढूंढने वाले मनुष्य को उतार-चढ़ाव वाले इस संसार में अन्य हर वस्तु प्राप्त हो जाती है परंतु मानसिक सुख शांति नहीं मिलतीे। यहां पर किसी की आंखों में आंसू है और किसी का दिल गमों से भरा हुआ है। चाहे कोई भिखारी हो अथवा राजा। जिसको भी देखो वही दुखी है। यह संसार में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जिसे आनंद की प्राप्ति हो।

2 किसान थे। एक ने आम का बाग लगा रखा था और दूसरे ने लीची का। दोनों अपने फल लेकर बाजार में जाते थे तो रास्ते में अक्सर उनकी मुलाकात हो जाती थी। एक बार मौसम बहुत अच्छा रहा। कहने से अभिप्राय यह है कि— न तो ज्यादा गर्मी हुई और न ही ज्यादा बारिश हुई। फलदार वृक्षों के लिए मौसम बहुत अच्छा था, जिसके कारण वृक्षों पर बहुत सारे फल लगे।
जब फल समाप्ति पर आए तो उन्होंने सोचा कि अब तो अगले वर्ष ही फल खाने को मिलेंगे। इसलिए उन्होंने बाजार में सारे फल न बेच कर अपने लिए पांच-पांच किलो फल बचा लिए ताकि वे और उनका परिवार उनको खाकर आनंदित महसूस कर सकें।
बाजार से वापिस लौटते समय दोनों रास्ते में मिले। दोनों में गपशप होने लगी। आम वाला किसान बोला कि— मैंने फल बचा तो लिए लेकिन इस बार फसल बहुत अच्छी होने के कारण हम लोगों ने खूब आम खाए। अब और आम खाने का बिल्कुल भी मन नहीं करता।
दूसरे किसान ने कहा यही हाल मेरा भी है। दोनों ने फैसला किया कि दोनों आपस में फल बदल लेते हैं। लेकिन आम वाला किसान बहुत लालची था। उसने नजर बचाकर कुछ आम छुपा कर रख लिए। वह अपने इस चालाकी पर बहुत ही आनंदित महसूस कर रहा था। घर जाकर उसने पूरे परिवार को आम और लीची खिलाई और अपनी चालाकी का बखान भी किया कि— किस तरह उसने लीची वाले किसान को बेवकूफ बनाया‌। अब उसे लीची के साथ-साथ आम भी खाने को मिले।
दूसरी तरफ लीची वाले किसान को आम खाने को मिल गए। वह बहुत खुश था। उसने और उसके परिवार ने मजे से आम खाए और बहुत अच्छी नींद ली।
लेकिन आम वाला किसान रात भर जागता रहा। उसे यही लग रहा था कि— कहीं लीची वाले किसान ने भी उसी तरह कुछ लीची छुपा कर तो नहीं रख ली।

इस भौतिक संसार मे यह अक्सर होता रहता है कि— मनुष्य कोई कार्य करता है और यही सोचता है की इस कार्य को करने के बाद उसे आनंद की प्राप्ति होगी। लेकिन जब वह कार्य पूरा हो जाता है तो भी उसे आनंद की प्राप्ति नहीं होती। ऐसा क्यों होता है कि जब हमारी मनचाही वस्तु मिल जाती है तो भी हम खुश नहीं होते?
क्या कभी इसके बारे में सोचा है? तो क्या हम यह समझ लें कि— संसार में सच्चा सुख, सच्चा आनंद है ही नहीं। लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है।
सच्चा सुख और सच्ची खुशी अवश्य है। यदि पर्यत्न एवं परिश्रम करने पर भी हमें इनकी प्राप्ति नहीं होती तो इसका कारण केवल एक ही है कि— हम गलत स्थान पर सच्चा सुख ढूंढ रहे हैं। हम सुख आनंद की खोज एंद्रिक विषयों में ढूंढते हैं, जिनमें सुख का नामोनिशान भी नहीं है। अपितु दुख ही दुख भरा है। विषय वासनाएं तो विष के समान हैं, इनमें सुख की कल्पना करना अज्ञानता की निशानी है। ये विषय रस तो ऐसे हैं जैसे विष की गोली पर चीनी चढ़ा दी जाए, जो मधुर प्रतीत तो होती है, लेकिन होती तो घातक ही है।

यदि सच्चा सुख, सच्चा आनंद प्राप्त करने की हृदय में आकांक्षा है तो ईश्वर की शरण में जाकर प्रभु- नाम के अमृत का पान करना चाहिए। ईश्वर के नाम के अमृत की बरसात तो निरंतर होती रहती है परंतु यह सुधा रस उनके मुख में ही गिरता है अर्थात् इस सुधा रस का पान वे सौभाग्यशाली ही कर पाते हैं जो पूर्ण रूप से स्वयं को ईश्वर को समर्पित कर देते हैं।

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