180. सच्चा भक्त

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि— एक सच्चा भक्त सबकी भलाई के बारे में सोचता है और सभी से सहानुभूति रखता है, परंतु उसकी प्रीति की तार केवल परमात्मा के साथ जुड़ी होती है। वह अपने शत्रु के साथ भी वैर भाव नहीं रखता। संसार से उदासीन रहता है और सबसे सरलता का व्यवहार करता है। यह सच्चे भक्त का सहज स्वभाव होता है।

इस मायावी संसार में यदि देखा जाए तो कुछ नास्तिक व्यक्तियों को छोड़कर, आमतौर पर मनुष्य किसी न किसी को अपना इष्ट मानकर उसकी पूजा आराधना में लगा रहता है, जिसे वह भक्ति कहता है। परंतु यह भक्ति नहीं है क्योंकि भक्ति तो एक ऐसा भाव है, जिसके प्रभाव से उसके अंदर कुछ ऐसे सद्गुण प्रविष्ट हो जाते हैं जो उसे एक भक्त की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देते हैं अथवा यह कहा जाए कि— सद्गुणों अथवा लक्षणों का एक भक्त के अंदर होना नितांत आवश्यक है तो गलत नहीं होगा। इन सद्गुणों से ही यह पहचाना जा सकता है कि— वह वास्तव में ही एक सच्चा भक्त है या उसकी भक्ति केवल दिखावा मात्र है, क्योंकि जो सच्चे हृदय से, सच्ची निष्ठा से भक्ति करता है उसमें सब गुणों का होना स्वाभाविक है।

एक सच्चा भक्त राग- द्वेष की भावना से ऊपर उठ जाता है। उसके लिए ना कोई अपना होता है और ना ही कोई पराया। उसको तो चारों तरफ, पूरी सृष्टि में अपने इष्ट की ही ज्योति नजर आती है। इसी कारण वह सभी के साथ समानता का व्यवहार करता है।

भाई कन्हैया का जीवन इस विषय में एक मिसाल है।

एक बार की बात है कि— गुरु गोविंद सिंह जी तथा औरंगजेब की सेना में परस्पर युद्ध हो रहा था। भाई कन्हैया युद्ध क्षेत्र में घूम कर बिना पक्ष- विपक्ष का विचार किए घायल सैनिकों को पानी पिलाया करते थे।

उसे ऐसा करते देख कुछ सिखों ने श्री गुरु महाराज जी के चरणों में भाई कन्हैया की शिकायत करते हुए निवेदन किया— गुरुजी!

भाई कन्हैया युद्ध भूमि में घूम-घूम कर अपने पक्ष के सैनिकों के साथ-साथ शत्रु के सैनिकों को भी पानी पिलाता है और उन्हें होश में लाने का पूरा प्रयास करता है। इसलिए आपसे विनती है कि— आप उन्हें शत्रु की सेना को पानी पिलाने और उनकी सेवा करने से मना कर दीजिए।

गुरुजी यह भली-भांति जानते थे कि— भाई कन्हैया, भक्ति की मंजिल पर पहुंच चुका है।
फिर भी उन्होंने भक्त की महिमा को प्रकट करने के लिए उसी समय भाई कन्हैया को बुलवाया और सबके सामने कहा—

कन्हैया, तुम्हारी शिकायत आई है कि— तुम युद्धभूमि में अपनी सेना के सैनिकों के साथ- साथ, शत्रु की सेना के सैनिकों को भी पानी पिलाते हो।

भाई कन्हैया ने हाथ जोड़कर विनती कि— गुरु जी! मुझे तो सभी सैनिकों में आपका ही रूप नजर आता है। मैं, कौन मित्र है, कौन शत्रु है, कौन अपना है, कौन पराया है, इसका भेद जानता ही नहीं। जिस समय मैं घायल सैनिकों को पानी पिलाता हूं, उस समय मुझे ऐसा एहसास होता है कि— आपको प्यास लगी है और मैं आप को पानी पिलाने की सेवा कर रहा हूं।

भाई कन्हैया के मुख से यह सब सुनकर सब हैरान हो गए।
तब गुरु जी ने कहा— भाई कन्हैया, तुम भक्ति की दृष्टि से अत्यंत उच्च अवस्था को प्राप्त कर चुके हो। वही सच्चा भक्त होता है, जिसकी नजर में अपना- पराया नहीं होता। चाहे वह मित्र हो या शत्रु हो। उसको सभी में ईश्वर का अंश ही नजर आता है। इसलिए आज मैं, तुम्हें एक काम और सौंपता हूं, जिसे तुम ही भली-भांति कर सकते हो।

भाई कन्हैया ने कहा— गुरुजी! आदेश कीजिए।

गुरुजी ने कहा— कन्हैया, मैं चाहता हूं कि तुम सैनिकों को पानी पिलाने के साथ-साथ उनकी मरहम- पट्टी भी किया करो।

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