श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
अगर हम चाहते हैं कि हमारा जीवन सफल हो, सुंदर हो तो उसके दो ही रास्ते हैं।
पहला— स्वयं से प्रेम करके और
दूसरा— दूसरों से प्रेम करके।
पहला यह है कि—हम स्वयं से प्रेम करें यानी हमें अपने आप से एक प्रेम भरा संबंध स्थापित करना है जो ध्यान, समाधि और योगासन के द्वारा किया जाता है।
दूसरा— संपूर्ण जगत या अन्य प्राणियों के साथ संबंध स्थापित करना जो कि दूसरों के प्रति प्रेम विकसित करके ही संभव होता है।
लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि हम इन दोनों को स्थापित करने के लिए ज्यादा समय नहीं दे पाते। यदि संसार के साथ हम प्रेम पूर्ण संबंध बनाने में असफल रहते हैं तो उस दिशा में हम स्वयं से भी संबंध स्थापित करने में असफल रहेंगे।
यदि हम स्वयं से संबंध बनाना सीख जाते हैं तो हमारा दूसरों से संबंध बनाना आसान हो जाता है या दूसरी तरफ यह कहा जाए कि यदि हम बाहरी दुनिया से प्रेम संबंध स्थापित करने में सफल हो जाते हैं तो स्वयं से भी संबंध बनाने में सफल हो सकते हैं।
मनुष्य का स्वयं उसकी मूल शक्ति होती है। अगर मनुष्य स्वयं पर विश्वास कर ले तो वह परमात्मा से भी संबंध स्थापित करने में सफल हो जाता है। मनुष्य स्वयं से प्रेम उसी स्थिति में कर पाता है, जब वह सांसारिक विचारों से मुक्त होकर ध्यान की गहराईयों में उतर जाता है।
वास्तव में ध्यान मन की लहरों को शांत करना है यानी मन को विचारों से मुक्त कर देना है और यह ध्यान मन की एकाग्रता से प्रारंभ होता है। हम अपने कार्यों के प्रति एकाग्र नहीं होते।
अक्सर ऐसा होता है कि— जब हम एक कार्य कर रहे होते हैं तो दूसरे के बारे में सोचते रहते हैं। जैसे हम स्नान कर रहे होते हैं तो भोजन या अन्य कार्य के बारे में सोचते हैं। जब हम खाना खा रहे होते हैं तो हमारे मन में दूसरे विचार पनपते रहते हैं। कहने से अभिप्राय यह है कि— हम एक कार्य कर रहे होते हैं परन्तु सोचते हैं, दूसरे कार्य के प्रति। इससे मन की एकाग्रता क्षीण होती है।
लक्ष्य प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि— हम जिस कार्य को करें, प्रत्येक क्षण उसी के बारे में सोचें। धीरे-धीरे हम इसके अभ्यस्त हो जाएंगे। ध्यान करते समय हमारे मन में अनेक प्रकार के विचार उत्पन्न हो जाते हैं। उन विचारों को दबाना नहीं है, बस साक्षी भाव से देखना है। कुछ समय के अभ्यास के बाद हम महसूस करेंगे कि—ये विचार मन के अंदर नहीं बल्कि बाहर ही गुजर रहे हैं। यही वह अवस्था होती है, जब मनुष्य ध्यान की गहराईयों में जाता है।
यही ध्यान की अवस्था उसके स्वयं के प्रेम को परिभाषित करती है। यही वह अवस्था है जो हमें शक्ति प्रदान करती है। यदि हम स्वयं से प्रेम नहीं करते या यह कहा जाए कि हमें स्वयं से प्रेम करने का समय ही नहीं मिलता तो इसका अभिप्राय बिल्कुल स्पष्ट है कि— हम समय-समय पर दुखी होते रहते हैं। प्रेम एक ऐसा शब्द है, जिसमें सब कुछ समाहित है और यही सफल जीवन की कुंजी है। जब स्वयं से प्रेम बढ़ जाता है, तब संपूर्ण प्रकृति से हमें अपने आप ही प्रेम होने लगता है और हमारे जीवन में खुशियों की झड़ी लग जाती है, जिससे हमें अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त होती रहती है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो मनुष्य इन दोनों पहलुओं को एक साथ साध लेता है, उसका जीवन सफल होने की संभावना काफी बढ़ जाती है।
jai shree shyam ji meri jaan meri pehchan shree shyam ji
Yazarhaber.com.tr It broadcasts matches unlimitedly without violating copyrights