190. मत दौड़ो, सुख के पीछे

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

संसार में सभी सुख के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, फिर भी सुख प्राप्त नहीं होता। वास्तव में हमें सुख का ज्ञान ही नहीं है। जिसे हम सुख समझते हैं, वह दुख के मूल कारण है। हम पर जो दुख आते हैं, वह हमारे अपने कर्मों का फल होता है। यह हमारा स्वभाव ही है।

60 वर्ष तक जेल में रहने के बाद जब एक चीनी को नए बादशाह के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में जेल से छोड़ दिया गया तो वह चिल्लाने लगा। अब मैं कहां जाऊं? मैं तो कहीं नहीं जा सकता। मुझे तो उसी भयानक कोठरी में चूहों के पास जाने दो। मैं यह उजाला नहीं देख सकता।

उसकी प्रार्थना के अनुसार उसे वापिस उसी कोठरी में फिर बंद कर दिया। हम सब मनुष्यों की हालत ठीक उस कैदी जैसी ही है। हम चाहते ही नहीं की हमें दुखों से छुटकारा मिले, चाहे कोई भी सुख हो, उसे पकड़ने के लिए हम जी तोड़ कर दौड़ लगाते हैं पर दुख से छुटकारा पाने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं होते।

महात्मा बुद्ध कहते थे कि— अपने दुखों को पैदा करने वाले तुम स्वयं हो। ऐसा भी तुमसे कोई नहीं कहता कि तुम जीवित रहो अथवा न रहो। तुम क्यों अपने आप ही दुख के चक्कर में पड़कर अनेक प्रकार के कष्टों का अनुभव करते हो। इसमें तो तुम्हें केवल आंसू तथा शून्यता ही प्राप्त होगी।

दुख भी ईश्वर द्वारा प्रदत्त किया गया दुर्लभतम उपहार है। वह उसे ही प्रदान करता है, जिसको वह अपना मानना है। जिसे वह तपा- तपा कर पारस बनाना चाहता है और मनुष्य के रूप में उसकी प्रतिभा, शक्ति, सामर्थ्य का भरपूर उपयोग कर उसके इस जीवन को श्रेष्ठ बनाना चाहता है। जीवन रूपी यात्रा में वही मनुष्य श्रेष्ठ होता है जो जीवन की परीक्षा में उत्तीर्ण होता है अर्थात् सफलता प्राप्त करता है और सफलता वही प्राप्त करता है जो अत्यंत श्रमशील होकर इस शरीर का भरपूर दोहन कर अपने अभीष्ट को प्राप्त करता है।

मानव शरीर दुर्लभ है, यह सभी जानते हैं। फिर भी इस शरीर को सुख पहुंचाने के लिए तरह-तरह के कर्मकांड करते रहते हैं। वह यह भूल जाते हैं कि मनुष्य शरीर उसे इस संसार में आकर कुछ विशेष कार्य करने के लिए, ईश्वर द्वारा निर्धारित समय के लिए मिला हुआ है। इस शरीर की श्रेष्ठता को जानकर जिसने अपने कर्म कर दिए उसी ने इहलोक से परलोक तक का मार्ग सुधार लिया और जो असमर्थ हो गया, वह ईश्वर के इस दुर्लभ उपहार से जन्मों- जन्मों तक के लिए वंचित हो गया।

सुखों के पीछे हम प्रतिदिन दौड़ते रहते हैं और यही देखते हैं कि मिलने से पहले ही गायब हो जाते हैं। पानी की तरह हमारी उंगलियों के बीच में से सुख बह जाता है परंतु फिर भी पागलों की भांति हम उसके पीछे दौड़ते ही जाते हैं। हमें यह स्मरण ही नहीं रहता कि— दुखों रूपी गहन जंगल में ही शाश्वत सुखों की उर्वरा धरती कर्मशील मनुष्य की आतुरता से प्रतीक्षा करती है। क्योंकि दैहिक दुखों की वैतरणी को पार करने के बाद ही ज्ञान का प्रवेश द्वार खुलता है।
दुखों की वैतरणी को पार करने के दो ही रास्ते हैं—
शारीरिक श्रम की दृढ़ता के साथ-साथ अपने आराध्य पर विश्वास।
श्रेष्ठ एवं निपुण गुरु की कृपा से उसकी नाव में बैठकर उस पार हो जाना।
हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इसके अलावा उस पार के देवलोक तक पहुंचने के लिए अन्य कोई मार्ग इस सृष्टि में नहीं बताया है।
अगर ध्यान से देखा जाए तो दुख तो देवताओं और ईश्वर कृपा का सानिध्य, दर्शन तथा सत्संग पाने का एक दुर्लभतम परमिट है। जिसको यह परमिट मिल गया या जिसने इस दुर्लभ जीवन में गहन तप, जप, साधना कर ली, वही उस सर्वेसर्वा की कृपा प्रासाद में प्रविष्ट कर सकता है। सच में वही मनुष्य उस ईश्वर का सानिध्य प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त करने का अधिकारी बन सकता है।

इस संसार में अपने दुखों का रोना रोने या अपने विगत कर्मों पर पश्चाताप करने के अलावा भी अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाने और ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करने का अवसर भी प्राप्त होता है। इसलिए हमें सुखों के पीछे भागने की बजाए अपने कर्म करने और ईश्वर को प्राप्त करने के मार्ग पर चलना चाहिए तभी हमारा इस जीवन में आने का मकसद पूरा होगा।

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