191. श्री कृष्ण जन्माष्टमी

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

श्री कृष्ण का जन्म द्वापर युग में, मथुरा के राजा उग्रसेन के पुत्र कंस के अत्याचारों से त्रस्त भक्त जनों की पुकार पर सप्तपुरीयों में श्रेष्ठ मथुरा की दिव्य, पावन भूमि पर कंस के कारागार में 3067 ईसा पूर्व की भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में रात्रि के ठीक 12:00 बजे माता देवकी के गर्भ से हुआ था।

योगेश्वर श्रीकृष्ण, पुरुषशिरोमणि, कर्मवीर, प्रज्ञा और शौर्य के स्वरूप षोडश कलायुक्त भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को पूर्ण अवतार माना गया है। भारतीय संस्कृति में श्री कृष्ण को विष्णु का आठवां अवतार माना जाता है। उनका जन्म उत्सव श्री कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में देश में ही नहीं बल्कि विश्व भर में मनाया जाता है।

श्री कृष्ण जन्म महोत्सव का प्रमुख उत्सव मथुरा की श्री कृष्ण जन्मभूमि में होता है। लोग यह कहकर झुम उठते हैं—

नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की।

हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की।

इसके अलावा ब्रज के सभी मंदिरों में ठाकुरजी के नयनाभिराम सिंगार होते हैं। मथुरा वृंदावन के अलावा भी सभी मंदिरों में कृष्णाष्टमी को धूमधाम से मनाया जाता है। सारा दिन भजन कीर्तन के कार्यक्रम चलते हैं और रात्रि को जैसे ही 12 बजते हैं, प्रत्येक मंदिर से शंख, घंटा, घड़ियाल आदि की आवाजें गूंजती हैं। सभी अपने- अपने ठाकुर के विग्रहों का पंचामृत से अभिषेक करते हैं और चरणामृत प्राप्त करते हैं।

शास्त्रों में कृष्ण अवतार को पूर्ण अवतार माना गया है, इसीलिए जगद् गुरु के रूप में पूरे विश्व के पथ प्रदर्शक हैं। उन्होंने पूरे विश्व को कर्मयोग का पाठ पढ़ाया। महाभारत युद्ध में उनका उपदेश युग- युगांतर तक प्रासंगिक बना रहेगा। हमारी सभी समस्याओं का तार्किक निदान भगवद्गीता में उपलब्ध है।

सनातन धर्मियों के सर्वश्रेष्ठ पुरुष के रूप में श्री कृष्ण भारतीय जीवन के आदर्श हैं। उनका संपूर्ण व्यक्तित्व एक राष्ट्र पुरुष या संस्कृति पुरुष के रूप में मुखरित होता है। मानव के रूप में अवतार लेकर संपूर्ण जगत का कल्याण किया। उन्होंने स्वयं गीता में उद्घोष किया कि—
जब- जब पापियों द्वारा धर्म की हानि होती है ,तब- तब मैं उसकी पुनर्स्थापना के लिए, पृथ्वी पर अवतार लेकर दुष्टों का दमन करता हूं।

द्वापर युग में भी जब कंस के अत्याचारों से पृथ्वी पर पापियों का भार बढ़ता जा रहा था। सर्वत्र अन्याय और अधर्म का वर्चस्व स्थापित हो चुका था। संत समाज त्राहिमाम्- त्राहिमाम् कर रहा था। ईश्वर का स्मरण करने वालों को कठोर यातनाएं दी जा रही थी। ऐसे संकटकाल में श्री हरि विष्णु का कृष्ण अवतार में प्राकट्य हुआ क्योंकि जन कल्याण हेतु उनका रचना विधान है। राष्ट्रहित उनके लिए सर्वोपरि है।

मानवता की पीड़ा को समाप्त करने के लिए धर्म एवं सत्य की पुनर्स्थापना के लिए और दुष्टों के पाप से धरा को मुक्त करने के लिए वे प्रकट होते हैं। अत्याचारियों का विनाश कर पृथ्वी पर शांत, समृद्ध राज्य की स्थापना कर वे उद्घोष करते हैं कि— जब-जब मनुष्यता त्रस्त होगी, अत्याचार बढ़ेगा तब कोई महामानव उद्धार हेतु प्रकट होगा। वे सख्त संदेश दे रहे हैं कि— पृथ्वी पर अत्याचार के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन मानवता के कल्याण के लिए लगा दिया क्योंकि लोकोपकार उनके जीवन का लक्ष्य है।

उनके अवतरण के समय देवताओं ने हर्षध्वनि से पुष्प वर्षा की। सभी दिशाओं में प्रकृति अपने पूरे शबाब पर थी, चारों तरफ मनमोहक छटा बिखर रही थी, मानों बाहें फैलाकर उनका स्वागत कर रही हों। पक्षियों का कलरव ऐसा लग रहा था जैसे मंगल गीत गा रहे हों। नदियां अपने पूरे उफान पर थी, यमुना नदी ने तो बालक श्रीकृष्ण के चरण धोकर उनका स्वागत किया। श्री कृष्ण का प्राकट्य सृष्टि की वचनबद्धता से प्रेरित था। जब प्राकृतिक व्यवस्था का उल्लंघन होने लगे, नैसर्गिक नियम ध्वस्त हो जाएं, नैतिक मूल्यों का पत्तन हो जाए, तब वसुंधरा पर सामान्य संतुलन को स्थापित करने के लिए भौतिक परिवर्तन अनिवार्य है जो दैवीय विधान है।

श्री कृष्ण ने इस धरा पर जन्म लेने के पश्चात् अपनी लीलाओं से संसार को जीने की कला सिखाई। पृथ्वी पर 120 वर्षों तक निवास करने के पश्चात बैकुंठ धाम लौट गए। उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन काल में समाज को विभिन्न रीति-विधान, कला ज्ञान, व्यवहार आदि की शिक्षा दी। उनका चरित्र बहुआयामी है। कभी वह बाल रूप में नंदरानी को मातृत्व सुख प्रदान करते हैं तो कभी ग्वाल बालों के साथ, उनके सखा के रूप में लीला करते हुए राक्षसों का वध करते हैं। कभी वह यमुना में स्नान करती हुई गोपियों को शिक्षा देते हैं तो कभी कुरुक्षेत्र में वीर अर्जुन को उपदेश देकर विश्व को एक महानतम ग्रंथ भगवद् गीता प्रदान करते हैं। उन्होंने गोपियों के साथ लीला कर उनके अहंकार और काम के घमंड को समाप्त कर निष्काम प्रेम को परिभाषित किया। महारानी द्रोपदी के माध्यम से संदेश देते हैं कि— जहां भी अबला प्रताड़ित होगी, निरीह जनों का शोषण होगा, वहां वासुदेव रक्षा करेंगे।

कुरुक्षेत्र में धर्म- अधर्म रूपी 18 दिवसीय महासंग्राम में अर्जुन का रथ हांक कर उनके सारथी बनें। उन्होंने युद्ध को टालने के लिए 5 गांव मांगे। लेकिन दुष्ट दुर्योधन ने उनकी यह बात भी स्वीकार नहीं की। तत्पश्चात् उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर को समझाया की दुष्ट का दमन होना ही चाहिए। अपराधी को दंड देना सर्वथा उचित है।

उन्होंने अपने युग को नवसृजन की दिशा में मोड़ा। उन्होंने प्राणी मात्र को यह संदेश दिया कि केवल कर्म करना व्यक्ति का अधिकार है, फल की इच्छा रखना उसका अधिकार नहीं है। उन्होंने जीवन सूत्रों को माला की तरह गूंथकर एक- दूसरे से पिरोया। जीव के वास्तविक रहस्य और सत्य आचरण को बताया। धर्म के मार्ग पर पथिक के कर्तव्यों को निर्दिष्ट किया और बार-बार कर्म की कठिन परिभाषाओं का सरल निरूपण किया।

उनका स्वयं का जीवन काफी उतार-चढ़ाव से ओतप्रोत रहा। जेल में जन्म लिया, जन्म लेते ही जननी को छोड़ना पड़ा। गोकुल गए तो नंद बाबा को कंस के राक्षसों का सामना करना पड़ा, जिससे परेशान होकर नंद बाबा को गोकुल छोड़कर, वृंदावन में आश्रय लेना पड़ा। कंस को मारने के पश्चात् भी नित जरासंध द्वारा किए गए आक्रमणों से परेशान होकर वृंदावन छोड़ कर द्वारिका बसानी पड़ी। कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन का सारथी बनना पड़ा और आखिर में जंगल से विदा हुए।

श्री कृष्ण लीला पुरुषोत्तम हैं। वे जन-जन के आराध्य हैं। उनका कोई भी कार्य निरर्थक नहीं है। उनमें वैराग्य योग, ज्ञान योग, धर्म योग, कर्म योग आदि समाहित हैं। अपने व्यवहार से कर्म की व्याख्या पग- पग पर प्रदर्शित की। भक्ति योग व प्रेम योग के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। जीने की कला और जीव के परम उद्धार का सहज ज्ञान कराया। श्री कृष्ण के प्रेम योग का अनुशीलन देवताओं के लिए भी दुर्लभ माना गया।

वास्तव में देखा जाए तो मनुष्यता को ईश्वरत्व तक उठाने की कला ही श्री कृष्ण लीला है। जीवन के अमूल्य क्षण सांसारिक वासनाओं में ही नष्ट न हो जाएं, इसका ख्याल तो मनुष्य को ही रखना होगा। सनातन धर्म में आदिकाल से ही साधना का यही लक्ष्य रहा है कि— हम अच्छाइयों को धारण करें। मनुष्य रूप में जन्म लेने के पश्चात् ईश्वरत्व की महानतम ऊंचाइयों को प्राप्त करें।

जन्माष्टमी का अमृत मंत्र यही है कि— हम विचारों में कृष्ण को प्रतिष्ठित करें। फल की चिंता से मुक्त होकर केवल कर्म करते हुए आनंद के साथ अपने कार्य का निष्पादन करें। बृज धाम में उनकी अवतरण की बेला में हम नूतन स्फूर्ति और उल्लास धारण करें। श्री कृष्ण सब का साथ देते हैं और सर्वविकास की राह दिखाते हैं। आनंद की अनंत सरिता हैं। उनका उल्लासमय जीवन हमें जीने की कला सिखाता है। वे सनातन परंपराओं के संरक्षण में अग्रणी हैं। गीता को प्रकट कर उन्होंने मानवता के कल्याण का पथ प्रशस्त किया है जो भक्त कृष्ण योग का रसपान करेगा, उसे सभी संकटों से मुक्ति अवश्य मिलेगी।

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