193. गुरु की महिमा

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

गुरु विश्व की श्रेष्ठ पदवी है जो अपने शिष्य को सर्वोत्तम बनाने के लिए धर्म का निर्वहन करता है। विद्या प्राप्त करने के लिए गुरु की महती आवश्यकता होती है और गुरु इसी विद्या की अनेक धाराओं का संगम है। गुरु के बिना किसी भी क्षेत्र में उपलब्धि प्राप्त नहीं की जा सकती। यदि किसी मनुष्य ने गुरु का मंत्र धारण नहीं किया तो समझ लो वह पृथ्वी पर भार है। ऐसा मनुष्य कभी भी गुरु की महिमा को समझ ही नहीं सकता।

मानवीय शरीर धारण करने के पश्चात् गुरु का प्रेम और आशीष अवश्य प्राप्त करना चाहिए। तभी वह गुरु भक्ति और गुरु शक्ति का वाहक बनने में सक्षम हो सकेगा। भगवान स्वयं भी गुरु की ओर संकेत कर, उन्हें स्वयं से श्रेष्ठ बताते हैं। उसी तरह माता-पिता भी गुरु को अपने से श्रेष्ठ मानते हैं। वास्तव में देखा जाए तो माता-पिता तो जन्म देकर पालन- पोषण करते हैं। लेकिन किसी को आदर्श मनुष्य का दर्जा देने वाला तो गुरु ही है।

वैसे तो जीवन के हर क्षेत्र में गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। परंतु अध्यात्म में गुरु की भूमिका को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। मंत्र की दीक्षा से लेकर उसकी सिद्धि प्राप्त करने तक यानी की पूरी की पूरी मंत्र साधना में गुरु की कृपा की नितांत आवश्यकता होती है। शिष्य के ज्ञान एवं विश्वास को अपनी शक्ति से दिव्यशक्ति की ओर ले जाना और अपने प्रेम की बौछार करते हुए उसे सिद्धि तक पहुंचा देना ही गुरु के गुरुत्व को दर्शाता है। लेकिन गुरु भी श्रेष्ठ होना चाहिए, तभी वह अपने शिष्य को जीवन के गूढ़ रहस्य को समझा सकता है।

गुरु शिष्य संबंध ही आध्यात्मिक संबंध है क्योंकि गुरु ही ईश्वर का मार्ग दिखाता है। एक गुरु ही है जो जीव को जीवन के रहस्य से रुबरु करवाता है। वही मानव के जीवन से जुड़े लक्ष्य भेद को सिद्ध कराने में समर्थ हो सकता है। जिस भी साधक ने गुरु की महिमा को आत्मसात् कर लिया, वह भवसागर से पार हो गया।

जीवन का सच्चा निर्माता गुरु ही है। वह अपने बुद्धि कौशल से शिष्य के चरित्र का निर्माण करता है। यह गुरु की महिमा ही होती है कि— वह अपने से बढ़कर अपने शिष्य को महान बनाता है। भगवान श्री राम के लिए गुरु वशिष्ठ, पांडुवों के लिए गुरु द्रोण और चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त के लिए आचार्य चाणक्य जैसे गुरु ही उनकी सफलता के स्रोत थे। विद्यादान की गुरु कृपा ही अपने शिष्यों का महिमामंडन करने का माध्यम सिद्ध होती है। शरीर व आत्मा का तत्व दर्शन, जीव की मीमांसा, ईश्वर की खोज और संसार का आश्रय, गुरु के मार्गदर्शन से ही संभव हो सकता है। गुरु को पारंपरिक एवं मूल पथ प्रदर्शक बताया गया है। जिस पर आत्मबोध की यात्रा सरल हो जाती है।

अब प्रश्न यह पैदा होता है कि— गुरु कैसा होना चाहिए? इसका उत्तर हमें कुलाणवितन्त्र में प्राप्त होता है। जिसने गुरु के बारे में विस्तार से बताया गया है कि—गुरु कैसा होना चाहिए। जो विद्वान वेद- वेदांगों का वेत्ता, सरल चित्त, मंत्र- शास्त्रज्ञ, उदार स्वभाव और परोपकारी हो, जिसके आचार- विचार में अद्भुत आकर्षण हो और जिसके व्यक्तित्व को स्मरण करते ही मन में निश्चिंतता या संतुष्टि आ जाती हो, वही गुरु होता है।

योगिनी हृदयतंत्र के अनुसार गुरु दो प्रकार के होते हैं—

लौकिक गुरु और परम गुरु

लौकिक गुरु—
जब तक साधक अपने अहंकार एवं अज्ञान जनित जन्म कर्मों को शास्त्र अनुरूप व्यवस्थित करने की क्षमता अर्जित नहीं कर लेता, तब तक उसको लौकिक गुरु की आवश्यकता होती है। लौकिक गुरु को सद्गुरु भी कह सकते हैं। लौकिक गुरु शास्त्र व साधना के विधि- विधान और मर्म के ज्ञाता होते हैं। वे साधना के क्षेत्र में आने वाली दुविधाओं एवं असुविधाओं को अपने वात्सल्य एवं उदार भाव से निष्ठा एवं विश्वास में परिणितकर साधना के मर्म को समझाते हैं और शिष्य को लक्ष्य तक ले जाते हैं।

परम गुरु —
हमारे परम गुरु तो अंतर्यामी ईश्वर ही हैं जो हमारे अंतर्मन में गुप्त रूप से विद्यमान हैं। वे अपने ज्ञानदीप से हमारे अज्ञान तिमिर का नाश करते रहते हैं। उनकी प्रभा हमारे कर्तव्य बोध का प्रकाश स्तंभ बनती है। यदि गुरु के इस ज्योतिर्मय स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हो पाता है तो साधक अहंकार, भ्रांति एवं किंकर्तव्य विमूढ़ता के घने अंधकार में भटकता रहता है। जब शिष्य में परम गुरु की कृपा पाने की इच्छा जाग्रत हो जाती है, तब वे अपना सर्वशक्तिमान एवं आनंदमय स्वरूप दिखला ही देते हैं। उनका यही स्वभाव कृपा भाव कहलाता है। यह कहा जा सकता है कि—अहंकार के प्रपंचों में उलझे अपने शिष्य के अज्ञान को दूर करना गुरु का पहला काम है।

लौकिक गुरु एवं परम गुरु दोनों की ही मनुष्य को महती आवश्यकता होती है। दोनों का सानिध्य पाकर ही वह इस भवसागर से पार हो सकता है। कवियों ने भी गुरु की महिमा का बखान अपने-अपने माध्यम से किया है।

कहा भी गया है कि— गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है, गुरु ही शिव है। गुरु साक्षात् परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं नमस्कार करता हूं।

1 thought on “193. गुरु की महिमा”

Leave a Comment

Shopping Cart
%d bloggers like this: