198. आत्म- समीक्षा

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

कोई भी मनुष्य जैसा है, वह वास्तव में वैसा नहीं होता क्योंकि मनुष्य की प्रकृति है कि— वह अपनी वर्तमान स्थिति से कभी भी संतुष्ट नहीं होता। वह आगे बढ़ना चाहता है। प्रगति करना चाहता है लेकिन कहता रहता है कि— समय पर दाल- रोटी मिल जाए और मुझे क्या चाहिए? लेकिन सच्चाई इससे कोसों दूर है। दाल- रोटी तो सिर्फ कहने के शब्द मात्र हैं। उसके जीवन में तो आगे बढ़ने की होड़ लगी हुई है।

आज हमारे जीवन में त्वरा है, तेजी है, एक दौड़-सी लगी हुई है, आगे निकलने की। किस से आगे निकलना है, यह किसी को भी नहीं पता। लेकिन प्रत्येक मनुष्य सिर्फ दौड़ लगा रहा है कि— आगे जाना है। जिंदगी एक रेस का मैदान बन चुका है। सबसे आगे निकलना है। जीवन में आनंद नहीं, खुशी नहीं, संतोष नहीं। बस पैसा, केवल पैसा। आज के जीवन का मापदंड बन गया। जिधर देखो, उधर पैसे वालों की ही चर्चा हो रही है और हमारा पूरा दिन पैसे कमाने में ही व्यतीत हो जाता है।

आज मनुष्य के जीवन को आर्थिक लाभ की चिंता और आर्थिक हानि के दुख ने निगल रखा है। उनके हृदय में हमेशा भविष्य की चिंता लगी रहती है। चिंता और संदेह का इतना अधिक प्रभाव मनुष्य पर अतीत काल में भी कभी नहीं रहा, जितना आज के समय है।

छोटे बच्चों को देख लीजिए छोटी कक्षा में ही किताबों का इतना भारी बोझ उनके कंधों पर डाल दिया जाता है कि— वे गर्दन उठाकर चल भी नहीं पाते। उनके मुंख पर बुढ़ापे का-सा सयानापन दीख पड़ता है। आज हम कितनी जल्दी जीवन को थकान से भर देते हैं। आज हमें कितनी जल्दी है कि— हम प्रत्येक वस्तु को तेजी से प्राप्त करने की चिंता में लगे रहते हैं। हमारे जीवन में तेजी इतनी बढ़ गई है कि प्रतीत होता है कि प्रत्येक मनुष्य अपने निश्चित समय पर पहुंचने को लेट हो रहा है।

आज हम प्रत्येक मनुष्य के चेहरे पर शीघ्रता और दौड़ की दुश्चिंता की रेखाएं स्पष्ट देख सकते हैं। हमारे कामों में भी प्रतिवर्ष तीव्रता और शीघ्रता बढ़ती जाती है। हम जिस भी यंत्र का आविष्कार करते हैं, उसकी गति को और अधिक बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं।

भागदौड़ भरी इस जिंदगी में हमारे शरीर के ढांचे झुक गए हैं। असमय ही बाल सफेद हो गए हैं। बेचैनी बढ़ रही है। असंतोष बढ रहा है। हम अपनी रोटी कमाते हैं, पर उसे हजम करने की शक्ति हममें शेष नहीं बची। हमारी अत्यधिक उत्तेजित नाड़ियां शीघ्र ही चिड़चिड़ी हो जाती हैं। इससे हमें शीघ्र बुरा मानने, शीघ्र नाराज होने की आदत आती है। यह आदत असामाजिक है। सभी यह भली-भांति जानते हैं, फिर भी वे अपनी आदतों को छोड़ना नहीं चाहते।

दरअसल जीवन एक युद्धक्षेत्र है, इसमें हिम्मत और संकल्प के साथ जो आगे बढ़ता है, वही विजय प्राप्त करता है। जो हिम्मत हार गया, समझो जीवन में असफल हो गया। जीवन को सफल बनाने के लिए अभ्यास बहुत जरूरी है। अभ्यास जरूरत के समय ही नहीं बल्कि हर समय करना चाहिए। अखाड़े में उतरने वाला पहलवान प्रतिदिन अभ्यास करता है। ऐसा नहीं है कि— जब कुश्ती लड़नी हो तभी अभ्यास शुरू करे। तैयारी बहुत पहले से शुरू करनी पड़ती है। इसके साथ- साथ आत्म समीक्षा भी होती रहनी चाहिए कि— ईश्वर का नाम जपते हुए कितने वर्ष बीत गए। हमारे जीवन में कुछ परिवर्तन आया कि नहीं। अगर परिवर्तन आया है तो उस क्रम को आगे बढ़ाते हुए उसमें नए आयाम भी शामिल करें।

जीवन में कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं, जब लगता है, मानो सब कुछ खत्म हो गया। लेकिन सच तो यह है कि जीवन ठहरता नहीं है। यह निरंतर चलता रहता है। इसलिए कभी भी सब कुछ खत्म नहीं होता। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि खुद को और दूसरों को भी समझने का प्रयत्न करना चाहिए। जीवन कितना भी निरर्थक क्यों न लगे, उसमें अंतर्निहित की खोज कर मनुष्य सारे कष्टों को सहन कर, उनसे बाहर निकल सकता है।

1 thought on “198. आत्म- समीक्षा”

Leave a Comment

Shopping Cart
%d bloggers like this: