207. आत्म- समीक्षा का अवसर

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

इतिहास में जहां कोविड-19 के समय को महामारी, बेशुमार मौतों और शारीरिक-मानसिक तथा अन्य समस्याओं के लिए जाना जाएगा, वहीं हमारी सनातन संस्कृति में संकल्प शक्ति, मंत्रों, प्रार्थनाओं और प्रकृति के साथ चलते हुए, उसी से समाधान तलाशने की पूरी जिजीविषा के साथ, इस संकट से जूझने के लिए भी जाना जाएगा।

यह सर्वविदित है कि— कोरोना की दूसरी लहर के घातक तूफान ने जो तबाही मचाई उसके बाद से हम सभी की अपनी-अपनी दुनिया वैसी नहीं रही, जैसी वह पहले थी। हम में से बहुतों ने अपने प्रियजनों को खोया है। जिसके कारण हम सभी की स्मृतियों में कुछ खरोचें आ गई हैं। भविष्य की जो रंगबिरंगी खूबसूरत तस्वीरें थी, जो सपने थे, वे सब कोरोना की वजह से बदरंग हो गए, धूमिल हो गए। हमारे अंदर जड़ता आ गई है क्योंकि वहां शुन्य का जन्म हो चुका है। फिलहाल वहां किसी भी तरह की हवा, पानी, रोशनी और हरियाली की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है।

आज जो कोरोना वायरस का संकट हम झेल रहे हैं, यह हमारी ही लापरवाही का परिणाम है क्योंकि आज के मनुष्य को अपने शक्तिशाली होने का अंहकार है। इसलिए वह प्रकृति से खिलवाड़ करने से नहीं चुकता। वह यह भूल जाता है कि प्रकृति एक सीमा तक ही खुद पर किसी भी प्राणी का आधिपत्य स्वीकार करती है। जब अति हो जाती है तो वह उसे या तो किसी खगोलीय घटना से या किसी महामारी से नियंत्रित करती है। हमारे सनातन धर्म में यह बात सर्वविदित है कि कई करोड़ वर्ष पूर्व अंतरिक्ष से एक छोटा-सा उल्का पिंड पृथ्वी पर गिरा और डायनासोर युग समाप्त हो गया। अपने अहंकारवश मनुष्य यह स्मरण ही नहीं रखता कि विराट अंतरिक्ष में हम एक छोटे- से पृथ्वी के गोले पर एक छोटे-से कण की भांति हैं। सनातन धर्म ने इस बात को बहुत पहले ही समझाने की कोशिश की। महाप्रलय में मत्स्य अवतार के साथ पृथ्वी की रक्षा का वर्णन हो या ऋग्वेद की अनेक ऋचाएं महामारी उन्मूलन की प्रार्थना करते हुए पाई जाती हैं।

कोरोना कि दूसरी लहर में हमारे कुछ अपने चले गए लेकिन हम बच गए या यह कहें कि हमें बचा लिया गया। क्या इसको हम यह समझे कि इसमें ब्रह्मांड का कोई संदेश निहित है?
यदि वैज्ञानिक डार्विन के दिमाग से सोचें तो यह कह सकते हैं कि प्रकृति ने हमारा चयन किया है। चयन इसलिए किया है क्योंकि हमने इस झंझावत के दौर में बने रहने की अपनी क्षमता को प्रमाणित किया है। लेकिन क्या अपनों के साथ के बिना हम में से कोई यहां पर रहना चाहेगा।
इसका जवाब डार्विन के पास नहीं है। लेकिन भारत की सांस्कृतिक मेधा के पास है। भारतीय संस्कृति यह उदात्त घोषणा हजारों साल पहले कर चुकी है कि—पृथ्वी मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं। इसलिए प्रकृति के नियम कायदों में ना तो कोई अपना है और ना ही कोई पराया। यह पूरी वसुधा मेरा परिवार है।
प्रकृति की इसी विराट चेतना का हम बचे हुए मनुष्यों के लिए निर्देश है कि— भले ही तुम्हारे साज आज टूटे हुए हों लेकिन तुम्हें उससे रचनात्मक मधुर धुन निकालनी ही होगी क्योंकि जीवन की इसी निरंतरता को बनाए रखना बहुत आवश्यक है और इसलिए मैंने तुम्हें बचाया है।

दूसरी लहर से बचने के बाद भी बहुत सारे मनुष्य आज भी खोफजदा हैं क्योंकि कोरोना संकट अभी पूरी तरह टला नहीं है। धीरे-धीरे तीसरी लहर दस्तक दे रही है। लेकिन हमने कुछ संकल्पों और विकल्पों के साथ, कुछ आचरण और सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन के साथ या फिर कोरोना को अपने वैज्ञानिक औषधीय शौधों से पराजित कर अपनी नई दुनिया की रचना करनी ही होगी। पहले भी बीमारियां आई थी। उनका समाधान निकाला गया। हमेशा के लिए इससे छुटकारा पाने का उपाय भी मनुष्य ढूंढ ही लेगा, पर इसने हम सभी को आत्म- समीक्षा का अवसर अवश्य प्रदान कर दिया।

इस पर हमें विचार करना चाहिए कि आने वाले समय में भी क्या हम प्रकृति के खिलाफ जाते रहेंगे? क्या धरती का दोहन ऐसे ही करते रहेंगे? क्या अपनी महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश नहीं लगाएंगे? क्या मृत नदियों की यादें लेकर हम नई दुनिया में प्रवेश करेंगे या दोनों किनारों पर पेड़-पौधों की हरियाली के मध्य से कल-कल का मधुर संगीत बिखेरती नदियों और साफ नीले आकाश को छूने की प्रतिस्पर्धा करते पहाड़ों और उन्मुक्त विचरते पक्षियों के कलरव गान के साथ मनुष्यता विरोधी कार्यों को छोड़कर प्रकृति से सामान्जस्य स्थापित करके शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करेंगे।

1 thought on “207. आत्म- समीक्षा का अवसर”

Leave a Comment

Shopping Cart
%d bloggers like this: