208. कर्म की निरंतरता

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

धर्म शास्त्रों के अनुसार आत्मा को कई योनियों में भटकने के बाद मनुष्य रूप में जीवन मिलता है। मनुष्य जीवन ही एक ऐसा जीवन है जिसमें कर्म करना जीव के वश में होता है। दूसरे योनि में जीव या तो परजीवी होता है या उसके कर्म इतने सीमित होते हैं, जिनका कोई अर्थ नहीं होता। ऐसे में मनुष्य को चाहिए कि वह अपने लिए कर्म निर्धारित करे और फिर उसका सही से निर्वहन करे, जिससे उसका जीवन उद्देश्य पूर्ण और सार्थक बन सके क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना कहीं बेहतर होता है। वैसे भी कर्म के बिना जीवन निर्वाह करना संभव ही नहीं है।

इस भौतिक जगत् में प्रत्येक व्यक्ति को किसी न किसी कर्म में प्रवृत्त होना ही पड़ता है। कोई भी मनुष्य बिना कर्म के नहीं रह सकता। एक कर्म ही है जिसके माध्यम से मनुष्य अपना जीवन बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है। ऐसे में मनुष्य को चाहिए कि वह सकारात्मक कर्म करता हुआ अपने जीवन को सार्थक और मूल्यवान बनाने का प्रयास करे। अपने कर्मों के माध्यम से ही गरीब परिवार में जन्मा मनुष्य अमीर बन जाता है ज्ञानवान और गुणवान बन जाता है। अपने नकारात्मक कर्मों से कई मनुष्यों ने अपने जीवन को तबाह किया है ऐसे उदाहरण समाज में अक्सर देखने को मिलते हैं।

पूरी प्रकृति अपने निर्धारित कर्म में बंधी हुई है। सूर्य, चंद्रमा, ऋतु, हवा, पानी और यहां तक ईश्वर भी अपने निर्धारित कर्म के अनुसार ही गतिमान है। सृष्टि की रचना से लेकर आज तक इनमें से किसी ने कभी भी अपने निर्धारित कर्म का उल्लंघन नहीं किया। अगर मनुष्य भी इनका अनुसरण करते हुए अपने जीवन में कर्म की निरंतरता को बनाए रखेगा तो वह जीवन में अवश्य सफल हो जाएगा क्योंकि कर्म में निरंतरता का अपना विशेष महत्व है। कर्म एक गूढ़ विषय है, जिसकी बारिकियों को समझना बहुत कठिन है। मनुष्य को चाहिए कि वह सिर्फ इतना जान ले कि उसका कर्म क्या है? अगर वह अपने निर्धारित कर्म को जान जाए और पूरी लगन से उसे संपन्न करें तो निश्चित रूप से उसका कल्याण संभव है।

एक बार योग गुरु सत्यानंद स्वामी अपने आश्रम में संध्या के समय टहल रहे थे। उसी समय एक संपन्न परिवार का व्यक्ति योग सीखने के उद्देश्य से स्वामी जी के पास आया। स्वामी जी ने उसका कुशलक्षेम पूछा और उसे आश्रम के नियमों से अवगत करवाया। जब स्वामी जी ने यह कहा कि जब तक तुम योग में पारंगत नहीं हो जाते, तब तक तुम्हें आश्रम में ही रहना पड़ेगा और यहां के नियमों के अनुसार ही जीवन जीना होगा तो उस व्यक्ति ने खीजते हुए कहा— स्वामी जी! मैं आपके आश्रम में नहीं रह सकता क्योंकि मैं सुख सुविधाओं से संपन्न जीवन जीता हूं, आपके आश्रम में उन साधनों का अभाव है।
स्वामी जी ने कहा— फिर तो तुम किसी और गुरु के पास जाओ जो तुम्हारी इच्छा को पूरी कर सके।
स्वामी जी से यह सुनकर वह व्यक्ति मन मसोसकर रह गया और उसे वही आश्रम में रहना पड़ा।
अगले दिन स्वामी जी उसी समय जब टहल रहे थे तो वह व्यक्ति स्वामी जी से मिलने गया और शिकायती लहजे में स्वामी जी से बोला— आपके आश्रम में खाने में मुझे जो रोटियां मिलती हैं, वो ठंडी, सख्त और अधपकी होती हैं।
उस व्यक्ति की इस बात पर स्वामी जी मुस्कुराए और पूछा— आपको समय पर खाना मिल गया था।
उस व्यक्ति ने हां में सिर हिला दिया।
स्वामी जी बोले— यहां लोग मिलजुलकर खाना बनाते हैं। वे पाककला में दक्ष नहीं है। ऐसा करते हैं रोटी बनाने की जिम्मेदारी आपको सौंप देते हैं। आशा करता हूं आपके हाथों की गरम-गरम और पूरी पक्की रोटियां सभी को खाने को मिलेंगी।
स्वामी जी के मुख से यह सुनते ही वह व्यक्ति अधीर हो गया। उसने कहा रोटियां पकाना मेरा काम नहीं है।
स्वामी जी ने उत्तर दिया— यहां सभी लोग, सभी काम करते हैं।
अगले दिन उस व्यक्ति ने सचमुच अच्छी रोटियां पकाई। सभी ने उसकी नरम मुलायम रोटियों की तारीफ की।
लेकिन उससे अगले दिनों में वह थोड़ी-सी बेडौल,अधपकी और सख्त रोटियां बनाने लगा। एक दिन रोटियां बनाने के लिए वह रसोई में काफी देर से पहुंचा। यह बात स्वामी जी तक पहुंची तो उन्होंने उनसे भोजन में देरी होने की वजह जाननी चाही।

उस व्यक्ति ने झेंपते हुए कहा— मैं रोज- रोज रोटियां बनाते-बनाते उब गया हूं इसलिए देर से पहुंचा।

स्वामी जी ने उस व्यक्ति के साथ-साथ और सभी शिष्यों को भी संबोधित करते हुए कहा— अगर हमारा लक्ष्य परम योग को प्राप्त करना है तो हमें रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातों पर भी ध्यान देना होगा। जिस कार्य की हम निंदा कर रहे हैं, उस कार्य को स्वयं करके देखें तभी हम दूसरों के श्रम और मेहनत का सम्मान करना सीख पाएंगे। हमें मात्र अपने कर्तव्य का निर्वहन ही नहीं करना है बल्कि निरंतरता भी बनाए रखनी है।

इसलिए जीवन में कर्म की निरंतरता अत्यंत आवश्यक है। इसके बिना हम जीवन में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते।

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