212. आत्मनिर्भरता का मंत्र— मातृभाषा

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

इन दिनों देश में आत्मनिर्भरता की बहुत चर्चा हो रही है। आत्मनिर्भरता वास्तव में प्रत्येक स्तर पर सोची जाने वाली एक राष्ट्रव्यापी सोच है। देश की समृद्धि और विकास के लिए आत्मनिर्भरता बहुत आवश्यक है। अगर इस सोच को विस्तार देना है तो उत्पादकता से जुड़े सभी वर्गों के लिए वही भाषा अपनानी होगी जो उन्हें कार्य कुशल, निपुण और कामयाब बनाएं। जिससे वे अपने कार्य क्षेत्र में निपुणता हासिल कर सकें क्योंकि आत्मनिर्भरता के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है— शिक्षा और शिक्षा तभी सरल और सहज हो सकती है, जब वह मातृभाषा में हो। जब कामगारों और काम करने वालों के मध्य एक ही भाषा होगी तो उनमें तालमेल बेहतर होगा।

हिंदी हमारी मातृभाषा है। इन दिनों हिंदी को प्रोत्साहन देने के लिए विभिन्न गतिविधियां चलाई जा रही हैं। ऐसे में हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे आयोजन मात्र एक रस्म अदायगी वाले औपचारिक समारोह बनकर न रह जाएं बल्कि देश में हिंदी के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए निरंतर रूप से अभियान जारी रहने चाहिएं। किन्तु प्रश्न यह उठता है कि— क्या यह सभी उपाय पर्याप्त हैं? हम में से प्रत्येक ने स्वयं से यह प्रश्न करना होगा कि— विश्व की इतनी पुरानी, समृद्ध साहित्य वाली और इस धरा पर इतने लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा को क्या ऐसे उपायों की आवश्यकता है?

विश्व के सभी विकसित आत्मनिर्भर देश अपनी
भाषा में सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। वहां स्वास्थ्य, शिक्षा, विज्ञान, कानून, तकनीक सब उनकी अपनी मातृभाषा में उपलब्ध है। ऐसे में शिक्षा सुगमता से विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर बनाने हेतु मार्ग प्रशस्त करती है। मातृभाषा में बातों को बहुत सुलभता के साथ समझा और संप्रेषित किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि हम जिस भाषा में सर्वाधिक सहज होते हैं, हमारी चिंतन प्रक्रिया भी उसी भाषा में कार्य कर रही होती है।

हिंदी और भारतीय संस्कृति का एक अटूट संबंध है। यदि हम इस संबंध को और सशक्त करना चाहते हैं तो हमें मातृभाषा के महत्व को समझना होगा। उसके महत्व को समझने के पश्चात् ही हम अपनी सभ्यता और संस्कृति के साथ न्याय करने में भी सक्षम हो सकेंगे। वास्तव में देखा जाए तो मातृभाषा केवल अभिव्यक्ति या संचार का माध्यम नहीं है अपितु हमारी संस्कृति और संस्कारों की संवाहिका भी है। मातृभाषा में ही मनुष्य ज्ञान को उसके आदर्श रूप में आत्मसात् कर पाता है। भाषा से ही सभ्यता एवं संस्कृति, पुष्पित, पल्लवित और सुवासित होती है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि— हमें अपनी तकनीक को निरंतर बेहतर बनाना होगा लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि मातृभाषा रोजगार की भाषा बनें, जिससे हम आत्मनिर्भर बन सकें। किसी भी भाषा के विस्तार की निर्भरता उसके प्रयोग पर आधारित होती है। भाषा का जितना प्रयोग होगा उसकी दीर्घजीविता भी उतनी ही अधिक होगी। कई जनजातीय भाषाएं केवल प्रयोग न होने के कारण ही बिल्कुल विलुप्त हो गई। भाषा संस्कृति की वाहक होती है। संस्कृति अक्षुण्ण बनी रहे, इसके लिए भाषा का जीवित रहना अत्यंत आवश्यक है।

यदि हमें विश्व गुरु के पद पर प्रतिष्ठित होना है तो अपनी मातृभाषा को समुचित सम्मान दिए बगैर बिल्कुल भी संभव नहीं है। ऐसे में अपनी मातृभाषा को व्यापक रूप से व्यवहार में लाने की परम आवश्यकता है। हमें मातृभाषा की शक्ति को पहचानना होगा तभी हम उसे आत्मसात् कर पाएंगे। भारत को यदि एक सूत्र में बांधना है तो हमें अपनी मातृभाषा को उचित सम्मान देना होगा। अपनी मातृभाषा पर हमें गर्व की अनुभूति करनी होगी। मातृभाषा से ही हमारे राष्ट्र और समाज के उत्थान का मार्ग प्रशस्त होगा। हिंदी हमारी मातृभाषा है, उसके संरक्षण और प्रोत्साहन में अन्य भारतीय भाषाओं के साथ संघर्ष अनुचित है।

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