214. सेवा भाव

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के अपने कुछ नियम और कायदे होते हैं जिनका पालन करना प्रत्येक मनुष्य के लिए अनिवार्य होता है। अगर वह समाज में नहीं रहता तो वह मनुष्य नहीं है फिर या तो वह दानव है या फिर देवता। समाज में रहते हुए प्रत्येक मनुष्य के कुछ सामाजिक दायित्व होते हैं। उन दायित्वों के मध्य में जो भावना निहित होती है, वह है— सेवा भाव।

ईश्वर ने मनुष्य को ही इस भाव से परिपूर्ण बनाया है, इसलिए मनुष्य की जिम्मेवारी बढ़ जाती है।
एक कहावत है— सेवा स्वयं में पुरस्कार है।
जो खुशी और आनंद की प्राप्ति हमें दूसरों की सेवा से मिलती है, उसे लाखों रुपए खर्च करके भी नहीं पाया जा सकता।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है— यही पशु पर्वत्ति है कि— आप, आप ही चरे, वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
अर्थात् सिर्फ अपने भले के बारे में सोचना, निज स्वार्थ में अंधे होकर जीवन जीना, वास्तव में अर्थहीन जीवन है। बदले में कुछ पा लेने की लालसा में, किसी की मदद या सेवा करना भी व्यर्थ है।
सेवा का प्रतिफल तो असीम संतुष्टि है, किसी की सेवा करने के पश्चात् यदि मन आनंद विभोर हो जाए, एक सुकून मिले और आप एक सुकून भरी नींद ले सकें तो वही सच्ची सेवा है।

एक कहावत भी है कि— सेवा स्वयं में पुरस्कार है। जो खुशी और आनंद की प्राप्ति हमें दूसरों की सेवा करने से मिलती है, उसे लाखों रुपए खर्च करने के पश्चात् भी नहीं प्राप्त किया जा सकता।

तुलसीदास के अनुसार— दूसरों की भलाई से बढ़कर कोई भी धर्म नहीं है।

वैसे भी मानव जीवन की सार्थकता इसी बात पर निर्धारित होती है कि— उसने अपने जीवन को कैसे उपयोगी बनाया है? हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हम सब साथ हैं और जब तक हम इस दुनिया में हैं, तब तक एक-दूसरे की सेवा कर एक दिव्य समाज का निर्माण कर सकें। क्योंकि मानव जीवन की उपयोगिता भी परहित में ही निहित है और इसका आधार है—सेवा भाव।

1 thought on “214. सेवा भाव”

Leave a Comment

Shopping Cart
%d bloggers like this: