215. चेतना का विकास

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

जब आप किसी कार्य में उत्कृष्टता प्राप्त करना चाहते हैं तो उसमें सतत् सुधार के लिए निरंतर प्रयास करते हैं और एक दिन आप उसमें पारंगत हो जाते हैं, यह विकास है। लेकिन जब हम आंतरिक विकास की बात करते हैं, तो चेतना के विकास के बात करते हैं।

चेतना के विकास के लिए हमें अपने अंतर्मन में झांकना होगा और इसके लिए हमें ध्यान की अवस्था को प्राप्त करना होगा। जब हम ध्यान करते हैं तब हमारा मन अधिक शुद्ध, सहज व हल्का बन जाता है। हमारी चेतना स्वाभाविक रूप से विकसित होती है, तब हम अपने आंतरिक सामर्थ्य को उजागर कर पाते हैं। जब हमारी चेतना विकसित हो जाती है तो जटिलताओं, प्रतिक्रियाओं और भावनाओं से अशांत नहीं होती। हम अपनी क्षमताओं का सर्वोत्तम उपयोग करते हुए सभी कार्यों में उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं।

अपनी चेतना के विकास के लिए पहले हमें अपने मन को शांत करना होगा क्योंकि एक परेशान और बैचेन मन, तूफानी समुद्र की तरह होता है जो इच्छाओं, कामनाओं और चिंताओं के कारण अनेक दिशाओं में खिंचता रहता है। वह विभिन्न प्रवाहों में बह कर बिखर जाता है जबकि एक नियंत्रित व संतुलित मन केंद्रित रहता है और उससे सब का कल्याण होता है।

अपनी चेतना के विकास के लिए अध्यात्म के रास्ते पर चलना होगा। अपने जीवन पर चिंतन करना, उसकी जांच करना, उसका अवलोकन करना अध्यात्म है। जब हम ध्यान के द्वारा उस अवस्था में पहुंच जाते हैं कि— हमारी सभी इच्छाएं समाप्त हो जाएं और जीवन में हम अपने लिए किसी भी वस्तु की कामना ना करें, तब हम दूसरों की इच्छा को पूरा करने की शक्ति विकसित करते हैं। अपनी इच्छाओं पर अंकुश मत लगाइए बल्कि अपनी इच्छाओं के प्रति जागरूक होइये। आपकी जो भी इच्छाएं हैं, उन्हें ईश्वर पर छोड़ दीजिए और विश्वास कीजिए वे अवश्य पूरी होंगी।

जब आप यह तय कर लेंगे कि मुझे कुछ नहीं चाहिए तो आप अंदर से इतने मजबूत हो जाएंगे कि आप जो भी कुछ किसी से कहेंगे, आपके मुख से निकला हुआ एक- एक शब्द, आशीर्वाद बनकर फलीभूत होने लगेगा।

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