225. प्रभु लहर

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

इस संसार में इंसान के जीवन में सुंदरता, मादकता एवं आकर्षण तभी तक सुंदर और उपयोगी है, जब तक इसमें प्रभु रूपी सांसो की लहर विद्यमान है। इस संसार से परे परब्रह्मस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, निर्मल, स्वयंप्रकाश, आदि-अंत से रहित, निर्गुण और सच्चिदानंद स्वरुप परब्रह्म हैं, उसी के अंश सभी जीव हैं।

शरीर में प्रभु रूपी शिवत्व के अभाव में शरीर से उत्पन्न सभी आसक्तियां शव रूप में परिणत होकर जीव में विरक्ति के संसार का विस्तारण करती हैं। देवत्व से अनुराग के लिए भौतिकता से वैराग जरूरी है। भौतिकता की जड़ और चेतन में प्राण प्रतिष्ठा का प्रवाह सुचारू रूप से तभी संभव है, जब ईश्वर रुपी शक्ति-केंद्र से उनकी दयारूपी करुणादृष्टि का प्रवाह हो। इसके अभाव में उनमें प्राण रूपी संचार कदापि संभव नहीं है। प्रभु रूपी लहर के बगैर हम अपनी जीवन रूपी नैय्या को इस काल रूपी महासागर से पार नहीं पा सकते, क्योंकि काल के इस गहरे महासागर में यह संपूर्ण जगतू डूबता-उतरता रहता है। मृत्यु, रोग और बुढ़ापा रूपी ग्राहों से जकड़े जाने पर भी किसी व्यक्ति को ज्ञान नहीं हो पाता।

मनुष्य के लिए प्रतिक्षण भय है, समय बीत रहा है, किंतु वह उसी प्रकार दिखाई नहीं देता, जिस प्रकार जल में पड़ा हुआ कच्चा घड़ा गलता हुआ दिखाई नहीं देता। प्रभु कृपा की लहर के बिना मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं के महान भवननुमा जीवन में खुशियों की दीपमाला नहीं जल सकती। जिस प्रकार केवल आकर्षक भवन एवं हवेली को तब तक घर नहीं कहा जा सकता, जब तक उस में निवास करने वाला मानव प्रसन्न न हो। यह जगत् सभी दुखों का जनक, समस्त आपदाओं का घर तथा सब प्रकार के पापों का आश्रय है। लौह और काष्ठ के जाल में फंसा हुआ मनुष्य मुक्त हो सकता है, परंतु पुत्र एवं स्त्री के मोह जाल में फंसा हुआ वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। सब कुछ होने पर भी वहां आनंद एवं असली सुख की रिक्तता पग-पग अनुभव की जा सकती है। जो कर्म मनुष्य को बंधन में नहीं बांधता, वही सत्कर्म है।

जब तक मनुष्यों को कर्म अपनी ओर आकृष्ट करता है, जब तक उनमें सांसारिक वासना विद्यमान है और जब तक उनकी इंद्रियों में चंचलता रहती है, तब तक उन्हें परमात्मा की लहर का ज्ञान कहां हो सकता है। जब तक व्यक्ति में शरीर का अभिमान है, जब तक उसमें ममता है, जब तक उस मनुष्य में प्रयत्न की क्षमता रहती है, जब तक उसमें संकल्प तथा कल्पना करने की शक्ति है, जब तक उसके मन में स्थिरता नहीं है, जब तक वह शास्त्र- चिंतन नहीं करता एवं जब तक उस पर गुरु की दया नहीं होती है, तब तक उसको परम सत्ता की शक्ति का आभास कैसे हो सकता है?

इसके विपरीत महज त्रिपालनुमा घर में भी प्रभु कृपा से खुशनुमा परिवार देखा जा सकता है। मनुष्य आभाषित आनंद के लिए कामनाओं के जितने पासे फेंकता रहता है, उतनी ही बार असली खुशियों की पूंजी से हाथ मलता महसूस करता जाता है। यदि वास्तविक आनंद केवल भौतिकता में होता तो एक अभीष्ट के बाद मनुष्य वांछित सुख के सरोवर में डूब, स्वंय को विश्व का सबसे आनंदित एवं सौभाग्यशाली व्यक्ति घोषित कर चुका होता।
वस्तुतः भौतिकता के एक अभीष्ट की प्राप्ति पुनः अनंत आकांक्षाओं के द्वार खोल देती है। ये असंख्य द्वार हर पिछले लाभदायक लक्ष्य एवं उपलब्धि को पुनः प्राप्त करने के लिए और अगले काल्पनिक और श्रेष्ठ मुकाम की तरफ अग्रसर होने के लिए उकसाते हैं।

मनुष्य का चंचल मन किसी भी पायदान पर पहुंच, कहीं भी उस क्षणभंगुर सुख की लालसा के लिए लालायित रहता है। वह सोचता है कि— धन-दौलत से ही मुझे ज्यादा खुशी मिलेगी। धन-दौलत आपको इस भ्रम में रखती है कि आप ज्यादा स्वतंत्र हैं। आपका मन आपको बताता है कि अधिक धन से व्यक्ति को अधिक स्वतंत्रता मिलती है, जिससे वह खुशी रूपी सागर में डुबकी लगा सकता है, लेकिन एक राजा इसके विपरीत सोचता है, क्योंकि उसके पास धन- दौलत, नौकर- चाकर, ऐशो-आराम के सारे सामान मौजूद हैं, इसलिए वह इन्हें त्याग करके ही सुख की कामना करता है।

एक राजा था। उसने सुना था कि— उसका पुराना दोस्त एक साधु है, जिसके साथ उसने गुरुकुल में पढ़ाई की थी, वह शहर आ रहा था। वह विनम्रता पूर्वक उसे लेने गया। उसने अपने पुराने मित्र को बहुत जर्जर, फटे कपड़ों और जूतों के साथ देखा और कुछ प्रतिक्रिया दिए बिना उसका स्वागत किया। लेकिन वह व्यक्ति असभ्य और कटु था। राजा ने मन ही मन कहा, इसके वस्त्र फटे हैं, लेकिन इसका अहंकार फटा नहीं है। इस त्याग का क्या लाभ ? अधिक विनम्र, समर्पित और प्रेमपूर्ण बनने के लिए राजा सब कुछ त्यागने के बारे में सोच रहा था, लेकिन अपने लापरवाह मित्र को देखकर उसने अपना फैसला बदल लिया।

यह महसूस करना आवश्यक है कि आपके इर्द-गिर्द बनाए गए सुरक्षा कवच झूठे हैं। जिस सुख की चाहत में वह दर-बदर भटकता फिरता है, वह उस सुख को बटोर पाने में सक्षम हो ही नहीं पाता। वह यह भूल जाता है कि— ये सभी सुख इस भौतिक एवं मृत्युमय संसार में होते तो संसार का कोई भी व्यक्ति अभागा न महसुस करता। प्रभु-भक्ति की लहर से तरंगादित संसार अथवा माध्यमों से ही शाश्वत सुख की प्राप्ति संभव है जो पश्चाताप दिग्भ्रमित, अनित्य एवं नश्वरता जैसी अस्थिरताओं के भय से सर्वथा मुक्त हैं।

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