227. उत्साह

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

रामायण में महर्षि बाल्मीकि लिखते हैं— उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है। उत्साही पुरुष के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
कहने का अर्थ यही है कि बलवान व्यक्तियों का सबसे कीमती आभूषण उनका उत्साह ही है।

कभी पत्थरों से आग जलाने वाले मानव ने अब चांद पर कदम रखना सीख लिया है। मनुष्य के विकास का यह उत्थान एक दिन में तो नहीं हुआ बल्कि इसमें सदियां लगी हैं। मार्ग में कितनी असफलताएं आई होंगी लेकिन मनुष्य ने कभी हार नहीं मानी। कैसी भी परिस्थितियां आए, उसे लड़ने का जज्बा हमेशा रखा और ऐसा मनुष्य तभी कर पाया जब उस में उत्साह का बल था। उत्साह जब प्रबल होता है, तब वह सबसे बड़ा बल होता है।

किसी के जीवन का उत्साह चला गया तो समझो सब लुट गया। जीवन में सब कुछ खत्म होने के बावजूद भी उत्साह को नहीं खोना चाहिए। उत्साह बना रहेगा तो मनुष्य खोई हुई चीजों को वापस पा सकता है। यदि किसी में प्रगति करने का जज्बा नहीं है तो उसे छोटी से छोटी समस्या भी पर्वत की तरह विशाल नजर आती है। यदि कोई आगे बढ़ते जाने को लेकर गंभीर है तो इसका कारण यही है कि उसमें प्रेरणा भरपूर है। वह बड़ी से बड़ी और मुश्किल चुनौतियों को पार करते हुए आगे बढ़ता जाएगा क्योंकि चुनौतियां उसको छोटी लगती हैं।

कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जो समस्याओं से मुक्त हो और यह भी सच्चाई है लक्ष्य जितना बड़ा होगा, राह में आने वाली बाधाएं भी उतनी ही बड़ी होंगी। कोई सकारात्मकता के साथ आगे बढ़ता रहता है तो कोई अपना धैर्य खोकर मन को छोटा कर लेता है और हार मान लेता है। ऐसे में उसको कहीं से प्रेरणा मिल जाए तो मन में उत्साह बना रहता है। विषम परिस्थितियों में एक प्रेरणा ही है जो आगे बढ़ने का जज्बा भरती है।

उत्साह ऐसी मनोवृति है जो कार्य का स्वरूप देखकर बनती-उभरती है। कार्य यदि बड़ा और महत्वपूर्ण है तो उसमें लगने वाला उत्साह भी बड़ा होता है। किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए ललक और लग्न दोनों की अति आवश्यकता होती है। सफल होने की ललक हर व्यक्ति में होती है। परंतु लग्न की कमी के कारण सफल नहीं हो पाता। मन में उत्साह का संचार अगर सतत् रूप से होता रहता है तो मन में धैर्य एवं लग्न की धारा प्रवाहित होती रहती है।

एक बार एक वृद्ध आदमी कहीं से आ रहा था, तभी उसने देखा की एक इमारत बन रही है और उसमें तीन मजदूर कार्य कर रहे हैं।

वह पहले मजदूर के पास गया और उससे पूछा— तुम क्या कर रहे हो?

उसने गुस्से में आकर कहा— दिखाई नहीं देता क्या? मैं ईंट ढो रहा हूं।

फिर वह वृद्ध आदमी दूसरे मजदूर के पास गया और उससे भी वही सवाल किया। तुम क्या कर रहे हो?

दूसरे मजदूर ने कहा— मैं अपने परिवार का पेट पालने के लिए मेहनत मजदूरी कर रहा हूं। उसकी आवाज में भी रोष था।

फिर वह वृद्ध आदमी तीसरे मजदूर के पास गया और वही प्रश्न दोहराया कि— तुम क्या कर रहे हो?

उस मजदूर ने उत्साह के साथ उत्तर दिया—मैं इस शहर का सबसे भव्य मंदिर बना रहा हूं।

आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हो कि इन तीनों में से कौन अपने जीवन में सफलता प्राप्त करेगा।

कहा जाता है कि मृत्यु कुछ और नहीं आशा का खत्म होना है। दुनिया में आशा, हर्ष और उल्लास का वातावरण होना मनुष्य की सफलता के लिए बहुत ही आवश्यक है। मनुष्य में उत्साह का गुण नैसर्गिक भी हो सकता है और अभ्यास के द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है। सफल लोगों की जीवनी से, उनके आचरण से, महान कार्यों से, हम अपने जीवन में उत्साह ला सकते हैं।

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