श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
शास्त्रों में जीवन के चार उद्देश्य—धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष बताए गए हैं। सांसारिक बंधनों से मुक्ति ही मोक्ष का द्वार खोलती है। भारतीय दर्शन केवल मोक्ष की सैद्धांतिक चर्चा ही नहीं करता बल्कि उसके व्यावहारिक उपाय भी बताता है।
न्याय दर्शन के अनुसार दुख का निवारण ही मुक्ति या मोक्ष है।
उसी प्रकार बौद्ध, जैन और मीमांसको ने भी मोक्ष की चर्चा की है।
बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा के निर्वतन तथा निर्मल ज्ञान की उत्पत्ति ही मोक्ष है।
जैन दर्शन के अनुसार कर्म से उत्पन्न आवरण के नाश से जीव का ऊपर उठना ही मोक्ष है।
वहीं मीमांसकों के अनुसार वैदिक कर्म द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति ही मोक्ष है।
भगवान बुद्ध ने मोक्ष प्राप्ति के लिए जीवनपर्यन्त साधना की।
भगवान महावीर को भी कैवल्य (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या करनी पड़ी।
गरुड़पुराण में प्रसंग आता है कि— कर्म के अनुसार ही जीव को अपनी जाति, देह, आयु तथा भोग की प्राप्ति होती है। सूक्ष्म शरीर के बने रहने तक पुनः- पुनः जन्म-मरण की परम्परा चलती रहती है। स्थावर, कृमि, पक्षी, पशु, मनुष्य, दानव, देवता और मुमुक्षु यथा कर्म चार प्रकार के शरीरों को धारण करके हजारों बार उनका परित्याग करते हैं। यदि पुण्य कर्म के प्रभाव से उनमें से किसी को मानवयोनि मिल जाए तो उसे ज्ञानी बनकर मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।
चौरासी लाख योनियों में स्थित जीवात्माओं को बिना मानव योनि मिले तत्वज्ञान का लाभ नहीं मिल सकता। इस मृत्युलोक में हजारों ही नहीं, करोड़ों बार जन्म लेने पर भी जीव को कदाचित ही संचित पुण्य के प्रभाव से मानवयोनि मिलती है। यह मानवयोनि मोक्ष की सीढ़ी के समान है। इस दुर्लभ योनि को प्राप्त कर जो प्राणी स्वयं अपना उद्धार नहीं करता, उससे बढ़कर पापी इस जगत् में दूसरा कौन हो सकता है।
सभी प्रकार के दुखों से मलिन बनाये गये इस दुस्तर असार संसार में नाना प्रकार के शरीरों में प्रविष्ट जीवों की अनंत राशियां हैं। वे इसी संसार में जन्म लेती हैं और इसी में मर जाती हैं। किंतु उनका अंत नहीं होता। वे सदैव दुख से व्याकुल ही रहती हैं।
सत्संग और विवेक—ये प्राणी के मलरहित, स्वस्थ दो नेत्र हैं। इन दोनों मार्गों की शरण में जाकर ज्ञानी जन मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। अपने- अपने वर्णाश्रम धर्म को मानने वाले सभी मानव, दूसरे के धर्म को नहीं जानते किंतु वे दंभ के वशीभूत हो जाएं तो अपना ही नाश करते हैं। क्योंकि अज्ञान से स्वयं अपने आत्मतत्व को ढके हुए लोग प्रचारक बनकर देश- देशांतर में विचरण करते हैं। वे उपवास करके तथा नाम कीर्तन करके, यज्ञ आदि का सहारा लेकर मोक्ष के अधिकारी बनना चाहते हैं। लेकिन मूर्ख लोग यह भूल जाते हैं कि ईश्वर दिखावे की अपेक्षा सरल हृदय से प्रसन्न होते हैं।
शरीर को कष्ट पहुंचाने से अज्ञानीजन क्या मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं? क्या वामी को पीटने से महाविषधारी सर्प मर सकता है? यह बिल्कुल भी संभव नहीं है। आडंबर का सहारा लेकर समाज को वन के समान मानकर निर्वस्त्र और लज्जारहित जो साधु अन्य पशुओं की भांति इस जगत् में विचरण करते रहते हैं, क्या वे विरक्त हो सकते हैं? यदि मिट्टी, भस्म और धूल का लेप करने से मनुष्य मुक्त हो सकता तो क्या मिट्टी और भस्म में नित्य रहने वाला कुत्ता मुक्त नहीं हो जाएगा? वनवासी, ताप्सजन, घास- फूस, पता तथा जल का ही सेवन करते हैं, क्या इन्हीं के समान वन में रहने वाले सियार, चूहे और मृगादि जीव- जंतु तपस्वी हो सकते हैं? क्या जन्म से लेकर मृत्यु तक गंगा आदि पवित्रतम नदियों में रहने वाले मेंढक या मछली आदि प्रमुख जलचर प्राणी योगी हो सकते हैं? कबूतर, शिलाहार और चातक पक्षी कभी भी पृथ्वी का जल नहीं पीते, क्या उनका व्रती होना संभव है? अतः ये नित्यादिक कर्म लोकरञ्जन के कारक हैं। मोक्ष का कारण तो साक्षात् तत्वज्ञान है।
षड्दर्शन रूपी महाकूप में पशु के समान गिरे हुए मनुष्य, पाश से नियंत्रित पशु की भांति परमार्थ को नहीं जानते। अज्ञानी मानव चिंता से अत्यधिक व्याकुल होकर परमतत्व का कुछ और ही अर्थ निकाल लेते हैं। वे वेद- शास्त्रों को पढ़ते हैं और परस्पर उनको जानने का प्रयास करते हैं, किंतु जैसे कल्छी पाक का रसास्वाद नहीं कर पाती, वैसे ही वे परमतत्व को नहीं जान पाते। सिर पुष्पों को ढोता है, परंतु उसकी सुगंध का अनुभव नासिका ही करती है। ऐसे ही बहुत से लोग वेद- शास्त्रों को पढ़ते हैं, किंतु उनके भाव को समझने वाला दुर्लभ ही है। अपने ही भीतर विद्यमान उस ब्रह्म, परमतत्व को न पहचान कर मूर्ख प्राणी शास्त्रों में वैसे ही व्याकुल रहता है, जैसे कछार में आए हुए बकरी या भेड़ के बच्चे को एक गोप कुएं में खोजता है। सांसारिक मोह को विनष्ट करने में शब्द ज्ञान समर्थ नहीं है, क्योंकि दीपक की वार्ता से कभी अंधकार को दूर नहीं किया जा सकता। मूर्ख व्यक्ति का पढ़ना वैसे ही है जैसे अंधे के हाथ में दर्पण दे देना। यह ज्ञान है। इसको जान लेना चाहिए। ऐसे विचारों में फंसा हुआ मनुष्य सब कुछ जानने की इच्छा करता है, किंतु हजार दिव्य वर्षों तक पढ़ने पर भी वह शास्त्रों का अंत नहीं समझ पाता।
शास्त्र तो अनेक है किंतु आयु बहुत ही कम है और उसमें भी करोड़ों विघ्न बाधाएं हैं। इसलिए जल में मिले हुए क्षीर को जैसे हंस ग्रहण कर लेता है, वैसे ही उसके सार- तत्व को ग्रहण करना चाहिए। वेद- शास्त्रों का अभ्यास करके जो बुद्धिमान व्यक्ति उस परम तत्व का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उसको सभी दूरविकारों का परित्याग उसी प्रकार करना चाहिए, जिस प्रकार एक धान्यार्थी पुरुष धान ग्रहण कर लेता है और पुआल को फेंक देता है। जैसे अमृत के पान से संतृप्त प्राणी का भोजन से कोई सरोकार नहीं रह जाता, वैसे ही तत्व को जानने वाले विद्वान का शास्त्र से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
वेदाध्ययन से, शास्त्रों को पढ़ने से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। यह केवल ज्ञान से ही संभव है। हजारों शास्त्रों का भार सिर पर होने पर भी प्राणी को तो संजीवनी देने वाला वह परमतत्व तो अकेला ही है। जिसे गुरु के मुख से प्राप्त करना चाहिए। बंधन और मोक्ष के लिए इस संसार में दो ही पद हैं।
पहला—यह मेरा है।
दूसरा— यह मेरा नहीं है।
यह मेरा है, इस ज्ञान से वह बंद जाता है और यह मेरा नहीं है, इस ज्ञान से वह मुक्त हो जाता है। गरुड़ पुराण के अनुसार— अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, काञ्ची, अवंतिका तथा द्वारका यह सात पुरियां मोक्षप्रदा हैं।
“जो व्यक्ति ज्ञानरूपी हृदय में राग- द्वेष नाम वाले मल को दूर करने वाले सत्य रूपी जल से भरे हुए मानसतीर्थ में स्नान करता है” उसी को मोक्ष प्राप्त होता है।
“प्रोढ वैराग्य में स्थित होकर अनन्य भाव से जो मनुष्य परमतत्व का भजन करता है, वह पूर्ण दृष्टि वाला प्रसन्न आत्मा व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है।”
“घर छोड़कर मरने की अभिलाषा से जो तीर्थ में निवास करता है और मुक्ति क्षेत्र में मरता है, उसे मुक्ति प्राप्त होती है”।
तत्वज्ञ ही मोक्ष प्राप्त करते हैं, धर्मनिष्ठ स्वर्ग जाते हैं और पापी नरक में जाते हैं। सभी भारतीय दर्शन बंधन और मोक्ष संबंधी विचार से सहमत हैं। यदि कोई अपवाद है तो वह है— चार्वांक दर्शन, जो घोर नास्तिक और भौतिकवादी दर्शन है। इसी प्रकार कुछ लोग समझते हैं कि मोक्ष मरने के बाद शरीर रूपी बंधन छूटने पर मिलता है। परंतु यह सत्य नहीं है।
मेरा यह निजी अनुभव है कि— जो प्राणी अपनी वाणी, संयम, ब्रह्मचर्य, शास्त्र- श्रवन, अध्ययन, एकांतवाद, जप, समाधि, लोभ, मोह- माया आदि विकारों को त्यागकर अपने मन में शांति, धैर्य, शालीनता, सद्विचार व सरल हृदय से आडंबर रहित व स्थितप्रज्ञ होकर सारी इंद्रियों को लगाम लगाकर उन्हें कर्मयोग (प्रभु-भक्ति) में जोतता है, जो इंद्रियरूपी बैलों से निष्काम स्वधर्माचरण की खेती भली-भांति करा लेता है और अपनी हर श्वास को परमार्थ में खर्च करता हुआ, मौन, निराहार रहकर विषय- भोगों से इंद्रियों को समेट लेता है और अपने मनरूपी घोड़े को बुद्धिरूपी सारथी द्वारा सांसारिक भोगों से अनासक्त करते हुए कर्मों से मन को रोककर, बुद्धि द्वारा शुभ कार्यों में लगाता हुआ उस परमतत्व को प्राप्त कर उसमें एकाकार हो जाता है, तभी वह मोक्ष का अधिकारी होता है।
परंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि—मोक्ष देने वाले ज्ञान का स्वरूप भारतीय दर्शन की विभिन्न विचारधाराओं के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है, किंतु लक्ष्य सभी का एक ही है और वह है जीव को बंधनों से मुक्त करना। इस मृत्युलोक में आवागमन (जन्म-मृत्य) के चक्र से मुक्ति पाना।
Jai Shree Radhe Radhe Shyam Jai Shree Shyam🔥🔥🔥👋👋👋
Jai Shree Shyam Radhe Radhe