241. धर्म

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

धर्म से अभिप्राय है कि— धार्मिक होना और धार्मिक होने का अर्थ है— परिवर्तन की यात्रा पर चल पड़ना, रूपांतरण की ओर प्रस्थान कर देना। यहां से एक नए जीवन की यात्रा प्रारंभ होती है और इसमें अध्यात्म के स्पंदन जाग जाते हैं। क्योंकि धर्म की सच्चाई यही है कि जो धार्मिक होगा वह अवश्य बदलेगा। कोई धार्मिक हो, धर्म का आचरण करता हो और उसके जीवन में बदलाव न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता।

धर्म ही ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा हम समस्याओं के समाधान की जड़ तक पहुंच सकते हैं। फिर समस्याएं चाहे व्यक्तिगत हों या राष्ट्रीय स्तर की। कैसी भी हों? उनमें जो अव्यवस्था एवं मारधाड़ दिखाई पड़ती है, उसका कारण यही है कि हम अपने दैनिक जीवन में धर्म को सही स्थान देने में असमर्थ हो गए हैं। जबकि धर्म को जीवन का अभिन्न अंग बन जाना चाहिए।

आज धर्म के पुनर्जागरण की आवश्यकता है। क्योंकि यही एक सशक्त माध्यम है जो हमें प्रतिबिंबों की दुनिया से हटाकर मूल तक पहुंचा सकता है‌। आज के समय हम प्रतिबिंबों की छाया पर ही चल रहे हैं। मूल कहीं और है और प्रतिबिंब की पूजा की जा रही है। बच्चा जब जल में प्रतिबिंबित चांद को देखता है तो उसे पकड़ने का भरपूर प्रयास करता है। लेकिन वह उसे पकड़ ही नहीं पाता क्योंकि वह वास्तविक चांद नहीं है, वह तो केवल उसका प्रतिबिंब है।

समस्याएं भी जीवन के रंग हैं, प्रतिबिंब हैं, उनका मूल नहीं। यदि हम समस्याओं के मूल तक पहुंचने का प्रयास ही नहीं करेंगे और केवल प्रतिबिंब को ही देखते रहेंगे तो हमें प्रतिबिंब ही हाथ लगेगा। मूल तक हम पहुंच ही नहीं पाएंगे। सत्य को खोजने का अर्थ ही है कि हम प्रतिबिंब पर ही न रूकें, आगे बढ़ें और मूल तक पहुंचने का प्रयत्न करें। अक्सर ऐसा होता है कि हम प्रतिबिंबों को ही मूल मानने लगते हैं। जिससे हमारा नजरिया बदल जाता है और एक- दूसरे पर हमारा विश्वास कम हो जाता है, जिसके कारण हम संदेह करने लगते हैं।

धर्म को नए जीवन एवं प्राणशक्ति की जरूरत है, तभी हमारे हृदय में प्रेम और करुणा जैसे गुणों का आविर्भाव होगा। यह तो मानना ही होगा कि संसार की सभी समस्याओं की जड़ करुणा एवं प्रेम का कम हो जाना है क्योंकि प्रेम व करुणा से ही अंधकार मिटाया जा सकता है। प्रेम और करुणा जीवन के उद्यान को हरा-भरा बनाने के लिए आवश्यक है। परंतु जीवन उद्यान पत्तों को सींचने से हरा-भरा नहीं होगा।

यह तभी होता है, जब प्रेम दिव्यता का रूप ले लेता है तो हद्दय करुणा से परिपूर्ण हो जाता है। प्रेम अंतरतम का भाव है और करुणा उसकी अभिव्यक्ति है। करुणा किसी दुखी व्यक्ति के प्रति आपकी आंतरिक संवेदनशीलता को ही व्यक्त करती है। प्रेम में एकरूपता है। सब अपने परिवार से प्रेम करते हैं। पड़ोसी से नहीं। सभी को अपने धर्म से प्यार है। दूसरे के धर्म से नहीं। सब अपने देश पर जान न्यौछावर करने की बात करते हैं, मगर दूसरे देशों के प्रति घृणा की आग उगलते हैं। यह सच्चा प्रेम नहीं बल्कि सीमित प्रेम है।

धर्म का कार्य ही है सीमित प्रेम को वैश्विक प्रेम में तब्दील करना। प्रेम की पूर्णता में ही करुणा का सुंदर तथा सुगंधित पुष्प खिलता है तब व्यक्ति के हृदय में से अभिमान, भय एवं ऊंच-नीच की भावना का लोप हो जाता है, उस समय सिर्फ प्रेम ही बचा रहता है। इसके बदले कुछ पाने की इच्छा नहीं रहती।

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