श्री गणेशाय नमः
श्री श्याम देवाय नमः
गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि— चिंता, चिता के समान है क्योंकि चिता मुर्दे को जलाती है और चिंता जिंदा को जलाती है। यह एक मनुष्य को वैसे ही खोखला कर देती है जैसे लकड़ी को कीड़ा खत्म कर देता है। जब लकड़ी में दीमक लग जाती है तो वह लकड़ी का बुरादा बना देती है। ऐसे ही चिंता धीरे-धीरे हमारे शरीर को खोखला कर देती है।
भगवद् गीता में श्री कृष्ण यह भी कहते हैं कि — क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? किससे डरते हो? डर को त्याग दो? जब आत्मा न पैदा होती है, न मरती है तो फिर डरने की जरूरत क्या है? यह सभी मनुष्य जानते हैं लेकिन इसे अपने जीवन में कोई नहीं अपनाता। यह जानते हुए कि चिंता हमारे जीवन को तहस-नहस कर देगी, फिर भी वे चिंता का त्याग नहीं कर पाते। इससे हमारे शरीर में कष्ट उत्पन्न होने लगते हैं।
डैल कार्नेगी ने कहा है कि— हमें थकान अक्सर काम के कारण नहीं बल्कि चिंता, हताशा और नाराजगी के कारण होती है।
हमें यह समझना होगा की छोटी-छोटी बातों को लेकर चिंता करना कोई समाधान नहीं है। इससे हम अपने दुखों को दूर नहीं कर पाते बल्कि ओर दुखों को, तकलीफों को बढा अवश्य लेते हैं। यह हमारे आत्मविश्वास को भी खत्म कर देती है। आप स्वयं सोचिए क्या किसी ऐसी स्थिति से दुखी होने का कोई मतलब है, जिसे हम बदल ही नहीं सकते। जिनका समाधान नहीं होता उनके बारे में चिंता करना बेवकूफी है।
एक बार दो व्यक्ति एक ट्रेन में सफर कर रहे थे। उन दोनों के पास एक- एक थैला था।
एक व्यक्ति ने अपना थैला नीचे रख दिया।
जबकि दूसरे व्यक्ति ने उस थैले को उठाकर अपने सिर पर रख लिया।
वह बार-बार यह कहता है कि— यह थैला तो बहुत भारी है।
पहले व्यक्ति ने कहा— आप अपना थैला सिर पर क्यों रखे हुए हो? इसे नीचे रख दो।
उस व्यक्ति ने कहा लेकिन मैंने केवल अपने लिए टिकट खरीदा है, थैले के लिए नहीं।
ट्रेन में सवार होकर चाहे कोई व्यक्ति अपने सामान को सिर पर रखता है या नीचे रखता है, ट्रेन को इसका भार वहन करना ही है।
इसी प्रकार यदि हम यह समझें कि जीवन में जो कुछ भी होता है, वह ईश्वर की इच्छा से होता है। हम तो बस इतना कर सकते हैं कि अपने बोझ को सिर से हटा दें। कहने से अभिप्राय यही है कि जब समस्या आए तो उस पर दुखी होने की बजाय उचित प्रयास करें। यदि हम इस समझ के साथ जीवन में आगे बढ़ सकते हैं तो हम उचित प्रयास कर इसका परिणाम ईश्वर पर छोड़ सकते हैं। परिणाम चाहे कुछ भी हो, इसे ईश्वर के प्रसाद के रूप में स्वीकार कर हम अपने जीवन में शांति ला सकते हैं।
सुखी जीवन जीने के लिए सबसे पहले हमें चिंता का त्याग करना चाहिए। चिंता का कारण कुछ भी हो, हमें उसको त्यागना चाहिए। समाधान ढूंढने के लिए हमें उसके मूल में जाना चाहिए क्योंकि यदि हम यह पता लगाने में कामयाब हो जाएं कि हमारी चिंता का कारण क्या है तो हम समस्या का समाधान भी निकाल लेंगे।
चाहे हम हंसे या रोंएं। जिंदगी तो बीत ही जाएगी क्योंकि समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता लेकिन हर छोटी- छोटी बात के लिए हम चिंता करें, दुखी रहें यह उचित नहीं है। हम दूसरों के दुख दूर करें, यही उचित होगा। इसके लिए हमने स्वयं से संकल्प लेना होगा कि हम हर परिस्थिति को स्वीकारेंगे और हर परिस्थिति में खुश रहेंगे। संकट के समय साहस ही काम आता है। इसी मनोवृति के साथ आगे बढ़ें और अपने जीवन में स्वस्थ और प्रसन्न रहें।
Jai Shree Shyam Sunder Maharaj ji