246. करें, सच्चा प्रेम ईश्वर से

श्री गणेशाय नमः

श्री श्याम देवाय नमः

प्रेम का प्रथम लक्षण यही है कि— वह सदा देने वाला होता है, लेने वाला नहीं। मनुष्य जब प्रेम की बात करता है तो वह हमेशा मांगता ही रहता है। जब वह ईश्वर से प्रेम करने की बात करता है तो उसे भी प्रलोभन देने के लिए अनुष्ठान, पूजा- पाठ या यज्ञ आदि का सहारा लेता है।
जब भी वह ईश्वर से प्रार्थना करता है तो हमेशा यही कहता है कि— हे ईश्वर! मुझे यह दो, वह दो। अगर आप मुझे मनचाहा वरदान दे देते हैं तो मैं आपका अनुष्ठान, पूजा- पाठ, यज्ञ आदि करूंगा यानी वह एक तरह से दिखावे का आडंबर करता है। अगर ईश्वर उसे वह वस्तु नहीं देगा, जिसे वह प्राप्त करना चाहता है तो वह ईश्वर को ही भला बुरा कहने लगता है कि मैंने आपके लिए इतना पूजा-पाठ किया फिर भी आपने मेरी मनोकामना पूरी नहीं की।
एक तरफ तो वह ईश्वर से प्रेम करने की बात करता है और दूसरी तरफ ईश्वर के साथ व्यापार भी करता है। लेकिन यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि— जब तक हम किसी भी व्यक्ति से कुछ पाने की इच्छा से प्रेम करते हैं, तब तक वह प्रेम नहीं होता, वह व्यापार होता है और जहां प्रश्न व्यापार का आता है। वहां प्रेम नहीं रह जाता। इसलिए जब भी कोई ईश्वर से प्रार्थना करता है कि मुझे यह दो, वह दो। तब वह प्रेम नहीं करता।

एक बार की बात है कि— एक राजा जंगल में शिकार के लिए गया। वहां पर एक साधु से उसकी भेंट हो गई। उन दोनों के मध्य कुछ वार्तालाप हुआ। राजा साधु के विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उसको कुछ भेंट देने लगे।
लेकिन साधु ने राजा की भेंट लेने से इन्कार कर दिया।
राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा यह सोच कर बड़ा हैरान था कि इस साधु के पास अपना तन ढकने के लिए एक लंगोटी के सिवाय कुछ भी नहीं है, फिर भी यह कोई भी भेंट स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उसको कुछ भी समझ नहीं आ रहा था इसलिए वह बार-बार आग्रह कर रहा था ताकि वह साधु कुछ भेंट स्वीकार कर ले।
काफी आग्रह करने के पश्चात् भी जब साधु ने राजा से भेंट स्वीकार करने से मना कर दिया तो राजा ने साधु से पूछा कि—मुझे समझ नहीं आ रहा कि आपके पास कुछ भी नहीं है, फिर भी आप यह भेंट स्वीकार नहीं करना चाहते। इसका कारण मुझे बताइए?
साधु ने कहा कि—हे राजन्! मुझे सच में कुछ नहीं चाहिए। क्योंकि वृक्ष मुझे खाने को फल दे देते हैं। नदियां मुझे यथेष्ट जल देती हैं। गुफाओं में, मैं शयन करता हूं, तो फिर मेरी ऐसी कौन- सी जरूरत है जो आपके धन से पूरी होगी। इसलिए मैं आपसे कुछ नहीं लेना चाहता।
राजा साधु की बातों से ओर भी ज्यादा प्रभावित हुए और सोच- विचार करने लगे कि— अगर ऐसा मोह-माया से दूर रहने वाला साधु मेरे महल में रहेगा तो मेरे राज्य का और भी ज्यादा विस्तार होगा जिससे मेरे पास ओर भी ज्यादा हीरे जवाहरात होंगे और ऐसा विचार कर राजा ने साधु से कहा—ठीक है! आप मोह- माया के बंधनों से दूर हैं। लेकिन फिर भी मैं आग्रह करता हूं कि आप कुछ समय के लिए मेरे साथ महल में चलें, जिससे मैं आपसे बहुत कुछ सीख सकूं और प्रजा की भलाई के लिए कुछ कर सकूं।
साधु राजा के साथ चलने के लिए राजी हो गया। राजा उसे अपने राजमहल में ले गए। महल में पहुंचने के पश्चात् साधु ने देखा कि—महल में चारों तरफ हीरे- जवाहरात और मणि-माणिक्य भरे पड़े हैं। महल अद्भुत वस्तुओं के भंडार से भी परिपूर्ण था। सर्वोत्तम धन और शक्ति का साम्राज्य था।
साधु को महल लाकर राजा बड़ा खुश था। वह ईश्वर का शुक्रिया करना चाहता था। उसने साधु से कहा आप जरा विश्राम कर लीजिए। मैं ईश्वर की प्रार्थना कर लेता हूं।
यह कहकर राजा एक कोने में चले गए और प्रार्थना करने लगे— हे ईश्वर! यह साधु बहुत पहुंचा हुआ लगता है इसीलिए मैं इसे राज महल में ले आया। अब आप इस साधु के पुण्य कर्मों से मुझे और भी धन संपत्ति प्राप्त हो ओर मेरे राज्य का विस्तार हो।
साधु ने अपने तप के बल से राजा के मन के भावों को जान लिया और वह उठ कर महल से बाहर जाने लगा।
राजा ने उसे बाहर जाते हुए देखा तो कहने लगा— रुकिए महात्मन्! अभी तो आपने मेरी भेंट ली ही नहीं।
साधु ने कहा— मैं भिखारियों से भीख नहीं लेता। तुम मुझे क्या दोगे, तुम तो खुद ही मांग रहे हो।

साधु ने कहा— अगर आप सच में ईश्वर से प्रेम करते होते तो अपना जीवन उनकी शरण में लगा देते। ईश्वर से यही प्रार्थना करते कि— है ईश्वर! मैं अपना सर्वस्व तुम्हें अर्पण करता हूं और इसके बदले में मुझे कोई वस्तु नहीं चाहिए। मैं तो सिर्फ आपसे प्रेम करता हूं।

जब हम ईश्वर से प्रेम करते हैं तो हमारे जीवन से भय गायब हो जाता है। मान लो एक माताजी अपने बच्चे के साथ कहीं जा रही है, रास्ते में एक शेर आ जाता है और वह उस बच्चे पर झपटता है तो वह माताजी क्या करेगी? कहां जाएगी?
उस समय वह माताजी अपने बच्चे की रक्षा करेगी और सिंह के मुंह में प्रवेश करने से पीछे नहीं हटेगी क्योंकि उसे अपने बच्चे का जीवन बचाना है। वह अपने बच्चे से प्रेम करती है तभी तो वह अपने जीवन की परवाह नहीं करती। प्रेम सारे भय को जीत लेता है। इसी तरह ईश्वर का प्रेम भी है। ईश्वर से प्रेम करने वालों को किसी बात का भय नहीं रहता। जिन्होंने ईश्वर के प्रेम का स्वाद नहीं चखा, वही उससे डरते हैं और जीवन भर उसके सामने भय से कांपते रहते हैं।

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